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चिकित्सा अनुदान का दुरुपयोग

कोर्ट द्वारा अधिकारियों का वेतन रोकना एक सबक
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पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की फटकार ने निश्चित रूप से पंजाब सरकार की वित्तीय प्राथमिकताओं में घोर कुप्रबंधन को ही उजागर किया है। विडंबना यह है कि शासन-प्रशासन ने राज्य में स्वास्थ्य संबंधी दायित्व तो पूरे नहीं किए, लेकिन तंत्र के विलासितापूर्ण खर्चे बदस्तूर जारी रहे। कमजोर वर्ग के मरीजों को राहत देने के मकसद से शुरू की गई आयुष्मान भारत योजना के तहत केंद्र सरकार से मिले तीन सौ पचास करोड़ रुपये प्राप्त करने के बावजूद सरकार अस्पतालों के लिये यह धनराशि जारी करने में विफल रही। जिसके चलते चिकित्सा संस्थानों का राज्य सरकार पर करीब पांच सौ करोड़ धन बकाया रह गया है। यह विडंबना ही है कि शासन की यह लापरवाही ऐसे समय में उजागर हुई है जब राज्यभर के अस्पताल वित्तीय संकट के कारण मरीजों को पर्याप्त चिकित्सा सुविधा देने के लिये संघर्ष कर रहे हैं। कोर्ट के आदेश पर वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारियों का वेतन रोकने का यह कदम जवाबदेही तय करने की दिशा में एक अनुकरणीय पहल है। यह मामला स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवा की अनदेखी से जुड़ा है। राजनेताओं के लिये नई कारों, कार्यालयों के नवीकरण का खर्च व महंगे विज्ञापन जैसे गैर आवश्यक खर्च के लिये इस धन के खर्च करने के कारण यह मामला बेहत गंभीर हो गया है। जिसके चलते अदालत ने इस दिशा में सख्त कार्रवाई की जरूरत को रेखांकित किया है। जो राज्य सरकार के लिये एक सबक भी है।

यह प्रकरण बताता है कि शासन प्रशासन अपनी प्राथमिकताओं के निर्धारण में कितना संवेदनहीन बन जाता है। वह चिकित्सा सुविधाओं के लिये आवंटित धन के दुरुपयोग से भी गुरेज नहीं करता है। कैसी विडंबना है कि मरीजों को सस्ता व जरूरी उपचार सुनिश्चित करने वाली योजना के लिये आवंटित धन को विलासिता के लिये खर्च करने में गुरेज नहीं किया गया। निश्चय ही यह घटनाक्रम खराब शासन को ही दर्शाता है। वहीं सार्वजनिक कल्याण के लिये प्रशासन की प्रतिबद्धताओं से जुड़ी नैतिक चिंताओं पर भी सवालिया निशान लगाता है। ऐसे ही आर्थिक कुप्रबंधन के चलते पंजाब की वित्तीय परेशानियां लगातार बढ़ते राजकोषीय घाटे के कारण और भी बढ़ गई हैं। जिसका दबाव आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं पर पड़ रहा है। राज्य द्वारा धन का गलत तरीके से आवंटन शासन की विफलता को ही दर्शाता है। रिपोर्टें बताती हैं कि जहां राजनेताओं व नौकरशाहों को बड़े अनुदान से लाभ होता है, वहीं अस्पतालों और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को बढ़ते कर्ज और वित्तीय संसाधनों की कमी से जूझना पड़ता है। जिसका सीधा असर रोगियों की देखभाल व सार्वजनिक स्वास्थ्य की गुणवत्ता पर पड़ता है। उच्च न्यायालय द्वारा सरकारी खर्च के संबंध में पारदर्शिता की मांग सही दिशा में उठाया गया कदम है। शासन प्रशासन को अनावश्यक विलासिता के स्थान पर स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

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