मुनाफे की चिकित्सा-शिक्षा
हाल के वर्षों में शिक्षा और चिकित्सा का जिस तेजी से बाजारीकरण हुआ है, उसने आम आदमी को बदहाली के कगार पर पहुंचाया है। महंगी शिक्षा ने जहां अभिभावकों का बजट हिला दिया है, वहीं चिकित्सा के नाम पर मुनाफाखोरी ने लाखों परिवारों को गरीबी के दलदल में धकेल दिया है। इस मर्ज की रग पर हाथ रखते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत द्वारा दी गई चेतावनी सत्ताधीशों की आंख खोलने वाली है। इंदौर में एक किफायती कैंसर देखभाल केंद्र का उद्घाटन करते हुए भागवत ने चेताया कि भारत में स्वास्थ्य-शिक्षा को सामाजिक दायित्व मानने की परंपरा रही है। दुर्भाग्य से आज स्कूल-कॉलेज और अस्पताल लाभ संचालित उपक्रमों में तब्दील हो गए हैं। मुनाफाखोरी की अंतहीन लिप्सा ने कथित गुणवत्ता वाले स्कूलों व अस्पतालों को आम आदमी की पहुंच से दूर किया है। उन्होंने कॉर्पोरेट शैली के कथित कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआर के जुमले के बजाय लोककल्याण के धार्मिक सिद्धांतों के अनुसरण की अपील की। निस्संदेह,यह चिंता हमारे समय की विसंगतियों पर तीखा प्रहार करती है। आज आम भारतीय परिवारों पर स्वास्थ्य सेवाओं का भारी वित्तीय बोझ बढ़ रहा है। विडंबना यह है कि इस खर्च का छोटा हिस्सा ही सरकारी खजाने से वहन किया जाता है, जो कि स्वास्थ्य खर्च का महज 17 फीसदी है। वहीं करीब 82 फीसदी स्वास्थ्य खर्च लोगों को मुश्किल हालात में वहन करना पड़ता है। इन स्थितियों के चलते अस्पताल में भर्ती होने के बाद कई परिवार जीवन भर के लिये कर्ज में डूब जाते हैं। तो कई परिवार हमेशा के लिये गरीबी की दलदल में धंस जाते हैं। आज देश की बड़ी आबादी गैर संक्रामक रोगों, मसलन हृदय रोग,मधुमेह व उच्च रक्तचाप आदि से जूझ रही है। इनकी जांच, चिकित्सकीय परामर्श और उपचार के लिये मरीजों को एक बड़ी रकम चुकाने को मजबूर होना पड़ता है। जो कि बीमा योजनाओं के द्वारा बमुश्किल ही पूरी की जाती है।
कमोबेश, शिक्षा की भी यही स्थिति है। सरस्वती के मंदिर आज व्यापार के केंद्र बन गये हैं। अभिभावकों को उल्टे उस्तरे से मूंडने के लिये नये-नये तौर-तरीके निकाले जा रहे हैं। ट्यूशन फीस ही नहीं, एडमिशन फीस, बिल्डिंग फीस, ट्रांसपोर्ट जैसे तमाम मदों के नाम पर अभिभावकों का दोहन किया जाता है। इतना ही नहीं किताबें व ड्रेस तक शिक्षण संस्थानों की हिस्सेदारी वाली दुकानों से खरीदने को बाध्य किया जाता है। यहां तक कि आम शहरों में, माता-पिता प्रति बच्चे पर सालाना साठ हजार से भी ज्यादा खर्च कर रहे हैं। कुछ अभिभावक तो अपनी आय का लगभग आधा हिस्सा ट्यूशन और शिक्षा से जुड़े मदों पर खर्च कर रहे हैं। पिछले दिनों तब जनाक्रोश चरम पर नजर आया जब हैदराबाद के एक स्कूल में नर्सरी में दाखिले की सालाना फीस ढाई लाख रुपये बतायी गई। जिससे अभिभावकों में भारी रोष व्याप्त हो गया। जिसके बाद महंगी होती शिक्षा को लेकर नई बहस छिड़ गई। निस्संदेह, बढ़ती फीस के ये आंकड़े शिक्षा के बढ़ते व्यवसायीकरण को भी रेखांकित करते हैं। ऐसे में भागवत की हालिया अपील सत्ताधीशों को नीतिगत बदलावों के बारे में सोचने को विवश कर सकती है। इसमें दो राय नहीं कि शिक्षा हो या स्वास्थ्य, इसे आम आदमी की सामर्थ्य और सेवा भावना के अनुरूप होना चाहिए। मानव कल्याण के दृष्टिकोण से इस दिशा में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। पिछले दिनों दिल्ली के निजी स्कूलों में अनाप-शनाप फीस बढ़ाए जाने के खिलाफ अभिभावक सड़कों पर उतरे। जिसने दिल्ली सरकार को बाध्य किया कि इस दिशा में सकारात्मक पहल करे। इस आंदोलन के उत्साहजनक परिणाम सामने आए। कालांतर दिल्ली सरकार को निजी स्कूलों की फीस को विनियमित करने वाला विधेयक पारित करने को बाध्य होना पड़ा। जो इस दिशा में एक उत्साहजनक पहल कही जा सकती है। निस्संदेह, भागवत से संदेश पर मोदी सरकार को गंभीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए। दरअसल, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा को बाजार की वस्तु के बजाय नागरिक अधिकारों के दायरे में लाने की जरूरत है। इन क्षेत्रों को राजस्व स्रोत के बजाय नागरिक दायित्वों के रूप में मानकर सरकार समता का समाज स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ सकती है।