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जनसंख्या का गणित

दूरगामी राष्ट्रीय हितों को दें प्राथमिकता
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देश में विभिन्न दलों के राजनेता और धार्मिक नेता अपने तात्कालिक हितों की पूर्ति हेतु अपने लक्षित समूहों की आबादी बढ़ाने की जरूरत बताते रहे हैं। आबादी के बोझ से चरमराती नागरिक सेवाओं और सीमित संसाधनों के बीच आबादी बढ़ाने का आह्वान करना तार्किक दृष्टि से गले नहीं उतरता। लेकिन इसके बावजूद धार्मिक व सांप्रदायिक समूह के अगुआ आबादी बढ़ाने का आह्वान करते नजर आते हैं। इस विवादास्पद मुद्दे की हालिया चर्चा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी के कारण फिर सुर्खियों में है। उनका कहना है कि दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आ रही है। उन्होंने एक तस्वीर उकेरते हुए कहा है कि जिस समाज की कुल प्रजनन दर 2.1 से नीचे चली जाएगी, कालांतर उस समाज को एक चुनौती का सामना करना पड़ेगा। उनकी दलील है कि बहुसंख्यक समाज को हम दो, हमारे तीन के समाधान पर अमल करना चाहिए। यानी प्रत्येक जोड़े को कम से कम तीन बच्चे पैदा करने चाहिए। उल्लेखनीय है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री ने एक समुदाय विशेष को इंगित करते हुए चिंता जतायी थी कि अधिक आबादी वाला समुदाय जनसंख्या संतुलन के लिये चुनौती पेश कर रहा है। वहीं दूसरी ओर इस विवादास्पद भाषण के कुछ सप्ताह के बाद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी आंकड़ों के निष्कर्ष में इस बात को लेकर चिंता जतायी गई थी कि 1950 से 2015 के बीच बहुसंख्यक समाज की आबादी में 7.82 फीसदी की कमी आई है। वहीं देश के मुख्य अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी में 43 फीसदी की वृद्धि हुई है। दरअसल, इन्हीं आंकड़ों के जरिये भविष्य में बहुसंख्यक समाज के समक्ष उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के रूप में पेश किया जाता है। दरअसल, राजनीतिक नेतृत्व व धार्मिक संगठनों के नेताओं द्वारा अपनी सुविधा की जनसंख्या नीति को लेकर जो दलीलें दी जा रही हैं, वे एक अर्थशास्त्री द्वारा लक्षित जनसंख्या की संकल्पना दृष्टि के मद्देनजर विरोधाभासी कही जा सकती हैं।

वहीं दूसरी ओर देश के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने विश्व जनसंख्या दिवस पर आयोजित एक बैठक को संबोधित करते हुए कहा था कि विकसित भारत के लक्ष्य हासिल करने में छोटे परिवार मददगार साबित हो सकते हैं। निश्चित रूप से जनसंख्या से जुड़ी विरोधाभासी दलीलों की तार्किकता तलाश पाना एक कठिन कार्य रहा है। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि देश में परिवार नियोजन और गर्भनिरोधक के प्रयोग में वृद्धि के कारण प्रजनन दर में काफी गिरावट आई है। वहीं ऐसे ही तात्कालिक कारणों तथा राजनीतिक लक्ष्यों ने आंध्र प्रदेश में टीडीपी सरकार को दो संतानों की नीति को खत्म करने के लिये प्रेरित किया है। ऐसी ही जनसंख्या नीति में बदलाव के लिये तमिलनाडु सरकार की तरफ से विरोधाभासी बयान विगत में सोशल मीडिया पर खूब चर्चा का विषय बने हैं। ऐसे हालात में विभिन्न राज्यों में सरकारों को चाहिए कि वे जनसंख्या नीति पर बयानबाजी करने से पहले उपलब्ध संसाधनों का मूल्यांकन करें। वे विचार करें कि स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, रोजगार सृजन और गरीबी उन्मूलन की चुनौती के बीच क्या वे अतिरिक्त जनसंख्या के बोझ को संभाल पाने में सक्षम हो सकते हैं? निस्संदेह, राजनीतिक और धार्मिक लक्ष्यों के लिये संख्या का खेल खेलने वाले नेताओं को सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना भले ही सफलता का शार्टकट लगता हो, लेकिन उन्हें भारत की दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक स्थिरता के लिये ऐसे प्रयासों के निहितार्थों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जाहिर बात है कि देश की भौगोलिक स्थिति और जनसंख्या का घनत्व पहले ही काफी असंतुलित है। यदि फिर भी जनसंख्या वृद्धि की होड़ संकीर्ण स्वार्थों के लिये की जाती है तो उसके दूरगामी घातक प्रभाव सामने आ सकते हैं। हमारी प्राथमिकता हर हाथ को काम देने तथा सीमित संसाधनों के बेहतर उपयोग होनी चाहिए। यदि ऐसे हालात में आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि होती है तो कालांतर जनसंख्या के दबाव से चरमराती नागरिक सेवाओं के ध्वस्त होने की आशंका बलवती हो जाएगी।

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