निस्संदेह, पर्व-त्योहार का पहला मकसद जीवन की जड़ता समाप्त कर हरेक के जीवन में उल्लास भरना ही होता है। जीवन को जटिलताओं से मुक्त करके सहज करना होता है। वैसे तो हर पर्व के धार्मिक निहितार्थ होते हैं लेकिन मकसद व्यक्ति-समाज का कल्याण ही होता है। हमारे त्योहार जहां ऋतु परिवर्तन के चक्र से जुड़े हैं, वहीं कृषि प्रधान देश होने के नाते हमारे खेत-खलिहानों से भी जुड़े हैं। दिवाली तब आती है जब वर्षा ऋतु के चलते हमारे इर्द-गिर्द कुछ एेसा पनपता है कि हमें दिवाली आने तक रंगाई-पुताई से लेकर तमाम तरह की साफ-सफाई का ध्यान रखना होता है। घरों का कचरा निकालकर साफ-सुथरे वातावरण में लक्ष्मी के आने की प्रतीक्षा होती है। लक्ष्मी एक प्रतीक जरूर हैं मगर हमारा मकसद एक ऐसे स्वच्छ वातावरण का निर्माण करना होता है, जिसमें हम स्वस्थ रह सकें। भले ही वक्त के साथ तमाम विसंगतियां व धन-वैभव का प्रदर्शन पर्व से जुड़ता चला गया। कृत्रिमताओं का समावेश होता चला गया। मगर असल मकसद बाह्य व आंतरिक स्वच्छता ही रहा है। महामारी के संकट के बीच हमने स्वच्छता और संक्रामक रोगों से बचाव के लिये जिन तौर-तरीकों को अपनाया, वे पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे व्यवहार का हिस्सा रहे हैं। हमने उन परंपराओं और खानपान की रीतियों की अनदेखी की। बहरहाल, दिवाली भी हमारे दैैहिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि का ही पर्व है। जीवन की एकरसता को तोड़ने का उपक्रम है। सर्दियों के आगोश में आने से पहले जीवन के उत्स का अहसास करना भी है। परिजनों व मित्रों से सजग संवाद का अवसर भी है। जीवन की आपाधापी में ऐसे अवसर हमें रोज नहीं मिलते। वहीं एकरस जीवन में जटिलताओं के चलते जो अवसाद व तनाव हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं, उससे मुक्ति का भी यह सर्वसुलभ अवसर है।
वैश्विक महामारी के बीच इस त्योहार के खास मायने हैं। करीब आठ माह के भय, असुरक्षा और तनाव के माहौल से बाहर निकलने का यह अवसर भी है। दफ्तर सामान्य नहीं हुए, स्कूल पूरी तरह खुल नहीं पाये हैं, यातायात सामान्य नहीं हुआ है, ऐसे में सामाजिक सक्रियता चौकसी की मांग करती है क्योंकि संक्रमण का खतरा टला नहीं है। ऐसे में संक्रमण से बचाव के उपायों के साथ हमें त्योहार को सार्थक करना है। प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष रूप से इष्ट-मित्रों से त्योहार की खुशी बांटने की जरूरत है। निस्संदेह यह पर्व हमारे कृषि और आर्थिक कारोबार का भी हिस्सा है। बाजारों की चहल-पहल बता रही है कि देश की आर्थिकी कोरोना की छाया से उबर रही है। उम्मीद है यह पर्व कमजोर वर्ग की खस्ताहाल आर्थिकी के लिये राहतकारी साबित होगा। उस वर्ग को भी इससे संबल मिलेगा, जिसे लॉकडाउन और अनलॉक की प्रक्रिया में रोजी-रोटी के उपायों से महरूम होना पड़ा। आर्थिकी और कारोबार को सामान्य स्थिति में आने में निश्चित रूप से अभी कुछ और वक्त लगेगा, मगर इसके बावजूद यह त्योहार भारतीय आर्थिकी के लिये बूस्टर का काम करेगा। कुछ सरकारी प्रयासों और त्योहार शृंखला के लिये जमा की गई लोगों की पूंजी के खर्च से अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के संकेत मिल रहे हैं। ऐसे में हमारा फर्ज है कि हम क्षमता के अनुसार खर्च करें। हमारे ये प्रयास देश को मंदी की गिरफ्त में आने से बचा सकते हैं। निस्संदेह दिवाली खुशियों का पर्व है, हमारी कोशिश हो कि ये खुशियां परिजनाें-मित्रों के अलावा उन लोगों तक भी पहुंचें जो रोज कुआं खोदकर पानी पीते हैं। जिन्होंने सही मायनो में कोरोना संकट का संत्रास झेला है। यदि इस उजास पर्व का कुछ उजाला उनकी चौखट तक भी पहुंचेगा तो त्योहार मनाना सार्थक हो जायेगा। साथ ही इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि उत्साह में की जाने वाली आतिशबाजी रोगियों व अशक्त लोगों की मुसीबत का सबब न बने। पहले ही पर्यावरण संकट से जूझ रहे देश की आबोहवा को दुरुस्त रखना हमारा दायित्व भी है।