देश में यदि अंगदान हेतु जागरूकता व प्रेरणादायक राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाई जाए तो हर साल हम लाखों ज़िंदगियां बचा सकते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि देश में इसके लिये सरकार व समाज के स्तर पर गंभीर पहल अब तक नहीं की गई। वहीं कई अंधविश्वास और धार्मिक रूढ़िवादिता के चलते लोग अपने परिजनों के निधन पर अंगदान करने से परहेज़ करते हैं। विडंबना यह है कि देश में दशकों से इस मुद्दे पर चर्चा करने के बावजूद आज दस लाख लोगों पर सिर्फ़ 0.9 अंगदाता हैं, जबकि एक छोटे से देश स्पेन का उदाहरण लें तो वहां यह दर तीस से ज़्यादा है। यही वजह है कि जागरूकता के अभाव में हर साल लाखों मरीज़ अंग प्रत्यारोपण के इंतज़ार में मर जाते हैं। वहीं कई अन्य लोग अंग प्रत्यारोपण न हो पाने के कारण जीवन पर्यंत विकलांगता का जीवन जीने को अभिशप्त रहते हैं। इस राष्ट्रीय चुनौती को महसूस करते हुए केंद्र सरकार ने सभी अस्पतालों को अपने आईसीयू में अंग और ऊतक दान को प्रेरित करने वाली टीमें तैनात करने के निर्देश दिए हैं। निश्चित रूप से यह ज़रूरी है और समय की मांग भी है। इस दिशा में दशकों से प्रयासरत राष्ट्रीय अंग और ऊतक प्रत्यारोपण संगठन एनओटीटीओ ने अब हर अस्पताल से ब्रेन-स्टेम डेथ कमेटी के सदस्यों और परामर्शदाताओं वाली एक समर्पित टीम बनाने का आग्रह किया है, जो मृतकों के परिवारों को इस प्रक्रिया में भागीदारी के लिये मार्गदर्शन करेगी। यह एक ज़रूरी कदम है क्योंकि समय पर परामर्श, जागरूकता और समन्वय के अभाव में हम उपयोग में आने वाले अंगों के दान से वंचित हो जाते हैं। हम अक्सर देखते हैं कि जब तक शोकसंतप्त परिवारों से संपर्क किया जाता है, तब तक अंग या ऊतक की पुनर्प्राप्ति का रास्ता हमेशा के लिये बंद हो चुका होता है। निश्चित रूप से इस दिशा में सार्वजनिक शिक्षा और पारदर्शी व्यवस्थाएं इस विश्वास की कमी की खाई को पाट सकती हैं।
निस्संदेह, सरकारी निर्देश ही समस्या का समाधान नहीं है। कई अस्पतालों, ख़ासकर छोटे शहरों में, अंग प्रत्यारोपण समन्वयकों, प्रशिक्षित आईसीयू कर्मचारियों और यहां तक कि अंगों के संरक्षण और परिवहन के लिये बुनियादी ढांचे का भी नितांत अभाव होता है। इस दिशा में गंभीर पहल न हो पाने के कारण अंग प्रत्यारोपण के मामले में निजी क्षेत्र के अस्पताल ही अभी आगे हैं, जबकि सरकारी अस्पताल इस दिशा में पिछड़ गए हैं। सरकारी अस्पतालों में अंगदान करने के लिये शोकसंतप्त परिवारों को प्रेरित करने के लिये प्रशिक्षण, संसाधन जुटाने तथा प्रोत्साहन के लिये पर्याप्त आर्थिक संसाधन जुटाने की ज़रूरत है। जब वित्तीय मदद और अन्य सुविधाएं नहीं होंगी, तब सरकारी निर्देश भी इस दिशा में निष्प्रभावी रहेंगे। सबसे महत्वपूर्ण इस दिशा में लोगों का विश्वास अर्जित करना है। उन्हें बताना होगा कि मृत देह का यदि किसी को जीवन देने के रूप में उपयोग हो पाए तो वह ऋषिकर्म जैसा होगा। फिर खो चुके परिजन के अंग को भी वे इस कार्य से किसी अन्य शरीर में जीवंत रूप में देख सकेंगे। निस्संदेह, यह एक पुण्य का कार्य है जो मृतक परिजन की आत्मा को भी शांति देगा। विडंबना यह है कि भारत में आज भी अंगदान के विचार के साथ कई तरह के मिथक, भय और गलत जानकारियां जुड़ी हैं, जिसके चलते मृत व्यक्ति के परिजन अंगदान की पहल से गुरेज़ करते हैं। हमें इस दिशा में प्रगतिशील सोच के साथ जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। हमें सतही अनुष्ठानों से आगे बढ़कर मानव कल्याण के लिये आगे आना चाहिए। इस अभियान को हमें एक सहानुभूतिपूर्ण प्रचार-प्रसार के ज़रिए आगे बढ़ाना होगा। लोगों को बताना होगा कि यह सिर्फ़ दान ही नहीं, मानवता के प्रति करुणा का भाव जगाना भी है। निस्संदेह, सरकार की पहल और निर्देश एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन इसे एक समन्वित राष्ट्रीय प्रयास के रूप में विकसित करना ज़रूरी होगा—एक ऐसा प्रयास जो इस नीति को सहानुभूति व अंगदान को मानवता के कार्य से जोड़ सके। निस्संदेह, ऐसे प्रयासों से ही मृत्यु के बाद किसी को जीवन देने हेतु अंगदान का संकल्प एक सरकारी निर्देश के बजाय एक वास्तविक हकीकत बन पाएगा।