तबाही के सबक
हालिया मानसूनी बारिश और मौसमी विक्षोभ की जुगलबंदी से हिमाचल के कई इलाकों में तबाही का जो भयावह मंजर उभरा, उसे हमें कुदरत के सबक के तौर पर देखना चाहिए। बड़ी संख्या में लोगों की मौत व लापता होने के साथ ही अरबों रुपये की निजी व सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ है। निश्चय ही हाल के वर्षों में बारिश के पैटर्न में बदलाव आया है और बारिश की तीव्रता बढ़ी है। लगातार बादल फटने के बाद भयावह मंजर हमारे सामने उभरा है। निश्चय ही पूरी दुनिया में ग्लोबल वाॅर्मिंग के चलते मौसम के बिगड़े तेवर नजर आ रहे हैं, लेकिन पहाड़ों में जल-प्रलय सी आपदा का मंजर निश्चय ही भयावह है। वैज्ञानिकों को इस तथ्य पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि पहाड़ों में बादल फटने की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि क्यों हुई है। इस साल की मानसूनी बारिश में मंडी जिले में बादल फटने की घटनाओं ने बुनियादी ढांचे, घरों,सड़कों और बगीचों को जिस तरह से नुकसान पहुंचाया है, उसने पहाड़ों में विकास के स्वरूप को लेकर फिर नये सिरे से बहस छेड़ दी है। राज्य के तमाम महत्वपूर्ण राजमार्ग भूस्खलन और अतिवृष्टि से बाधित रहे हैं। कांगड़ा घाटी में ऐतिहासिक रेल परिवहन को स्थगित करना पड़ा है। शिमला के पास एक बहुमंजिला इमारत के भरभरा कर गिरने के सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो ने भयभीत किया। यहां ढली इलाके में कई इमारतें गंभीर खतरे की जद में आ चुकी हैं। निश्चय ही मौसम के मिजाज में तल्खी नजर आ रही है लेकिन इस संकट के मूल में कहीं न कहीं अवैज्ञानिक विकास, खराब आपदा प्रबंधन और निर्माण में पारिस्थितिकीय ज्ञान की उपेक्षा भी निहित है। जिसने इस संकट को और अधिक बढ़ाया है। दरअसल, पानी के प्रवाह के जो प्राकृतिक रास्ते थे, हमने उन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी हैं। हमने अपेक्षाकृत नयी हिमालयी पर्वतमालाओं पर इतना भारी-भरकम विकास व निर्माण लाद दिया कि वे इस बोझ को सहन नहीं कर पा रही हैं।
वास्तव, में हिमाचल व उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में अतिवृष्टि से आपदा का जो भयावह मंजर उभर रहा है, उसके मूल में सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही मुख्य कारक नहीं है। दरअसल, इस तबाही के मूल में हमारी नाजुक हिमालयी पारिस्थिकीय तंत्र के प्रति बड़ी लापरवाही भी है। विकास के नाम पर हमने पहाड़ों को काटकर चौड़ी सड़कें बना दी और इससे लगते पहाड़ों की जड़ें खोखली कर दी,जिससे भूस्खलन की गति अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। इस तथाकथित विकास के नाम पर हमने उन सीढ़ीनुमा रास्तों को दरकिनार कर दिया, जो पहाड़ों को मजबूती देते थे। इस तरह हमने परंपरागत हल्की छत वाले घरों के बजाय भारी-भरकम कंक्रीट की छतों वाले घरों को प्राथमिकता दी है। हिमाचल में लाहौल-स्पीति को जोड़ने वाली अटल सुरंग इंजीनियरिंग का चमत्कार हो सकती है, लेकिन इसके अवरोध के बाद पुरानी रोहतांग दर्रा सड़क पर वापसी साबित करती है कि आपातकालीन योजना ने बुनियादी ढांचे के विस्तार के साथ तालमेल नहीं रखा है। इसी तरह कांगड़ा घाटी में रेल यात्रा में व्यवधान विरासत के बुनियादी ढांचे के प्रति आधिकारिक उदासीनता को ही दर्शाता है। यह रेलवे लाइन अभी दूर-दराज के इलाकों के लिये जीवन रेखा जैसी ही है। शिमला के ढली के पास खराब निर्माण और लापरवाही ने कई इमारतों और लोगों के जीवन को संकट में डाल दिया है। जो हमारे अवैज्ञानिक विकास की कीमत चुका रहे हैं। दरअसल,हमें अतीत की आपदाओं से सबक लेकर भविष्य की विकास योजनाओं की रूपरेखा तैयार करनी होगी। पहाड़ों की संवेदनशीलता को देखते हुए नये सिरे से निर्माण के मानक तय करने होंगे। वहीं दैनिक जल निकासी और बरसाती पानी के प्रवाह के लिये वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्था करनी होगी। निश्चित रूप से पहाड़ों में लगातार बढ़ती जनसंख्या और बुनियादी ढांचे में पहाड़ की प्राथमिकताओं को नजरअंदाज करने की कीमत हम चुका रहे हैं। भविष्य में ऐसी आपदाओं को टालने के लिये अतीत के सबक सीखकर हमें विकास के नये मानक तय करने होंगे। हमें मानना होगा कि पहाड़ विलासिता के लिये प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवनयापन के लिये होते हैं।