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देर से उठाया कदम

शांति हेतु काफी नहीं मुख्यमंत्री का इस्तीफा
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भले ही न टाली जा सकने वाली विषम परिस्थितियों के चलते हुआ हो, मणिपुर के विवादित मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने आखिरकार इस्तीफा दे दिया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दिल्ली की ऐतिहासिक चुनावी जीत का मजा किरकिरा न होने देने के इरादे से उनका इस्तीफा दिलवाना बेहतर विकल्प समझा। इस हिंसाग्रस्त पूर्वोत्तर राज्य में हिंसा के कारण हुई मौतों और विस्थापन पर सार्वजनिक माफी मांगकर खेद जताने के एक माह से कुछ अधिक समय बाद बीरेन सिंह ने आखिरकार अपना पद छोड़ ही दिया। दरअसल, उनका यह अस्त्र काम नहीं आया। विडंबना यह है कि उनकी कथित बातचीत का एक ऑडियो टेप कुछ समय पहले लीक हुआ है। जिसमें टेलीफोन पर हुई वह बातचीत रिकॉर्ड हुई बतायी जाती है, जिसमें जातीय हिंसा भड़काने में उनकी भूमिका उजागर होती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सत्यता प्रमाणित करने के लिये इस टेप को केंद्रीय फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला को भेजा गया है। शीर्ष अदालत ने सीलबंद लिफाफे में यह रिपोर्ट सौंपने के आदेश दिए हैं। लगता है कि मणिपुर में विपक्षी दलों द्वारा बीरेन सिंह को हटाने की मुहिम में सत्तारूढ़ दल के कुछ विधायकों के शामिल होने की आशंका को भांपते हुए बीरेन सिंह को इस्तीफा देने को कहा गया है। उनके खिलाफ आरोपों की गंभीरता के मद्देनजर इस्तीफे को बचने के एक रास्ते के तौर पर देखा गया है। बहरहाल, राज्य सरकार व पार्टी की छवि को पहले ही काफी नुकसान हो चुका है और यह इस्तीफा बहुत देर से आया है। मणिपुर में मई 2023 से शुरू हुई जातीय हिंसा में करीब ढाई सौ लोगों की जान जा चुकी है और हजारों लोग विस्थापित हुए हैं। लेकिन राज्य सरकार स्थिति को संभालने में विफल रही है। विडंबना यह है कि व्यापक हिंसा व आगजनी के बाद बीरेन को पद से हटाने की मांग को नजरअंदाज किया जाता रहा है। विपक्ष इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को भी सवालों के घेरे में लेता रहा है।

बहरहाल, अब सवाल यह उठता है कि मुख्यमंत्री बदलने से क्या जमीनी हकीकत में बदलाव आ सकेगा? नया नेतृत्व क्या वह इच्छाशक्ति दिखा पाएगा जिससे मैती व कुकी समुदायों के बीच गहरी हुई खाई को पाटा जा सकेगा? निस्संदेह, मणिपुर के लोग न्याय व शांति का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में लोगों का भरोसा जीतना केंद्र सरकार की पहली जिम्मेदारी बनती है। ताकि राज्य में शांति व सद्भाव कायम हो सके। वहीं दूसरी ओर बजट सत्र को टालने से राज्य में राष्ट्रपति शासन की आशंका भी जतायी जा रही है। वैसे राज्य में दोनों प्रमुख समुदायों के बीच जिस हद तक अविश्वास हावी है, उसे देखते हुए शीघ्र सुलह-समझौते की उम्मीद कम ही है। यहां तक कि कुकी समुदाय अपने लिये अलग प्रशासनिक व्यवस्था की मांग जोर-शोर से उठाता रहा है, तो वहीं मैती समुदाय इस मांग का प्रबल विरोध करता रहा है। बहरहाल, प्राथमिकता राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित करने की होनी चाहिए ताकि विस्थापित लोग कानून पर भरोसा करते हुए अपने घरों को लौट सकें। सबसे बड़ी चिंता सुरक्षा बलों से दोनों समुदायों द्वारा लूटे गए हथियारों की बरामदगी की भी है। यहां तक कि पुलिस व सुरक्षा बलों पर भेदभाव के आरोप भी लगते रहे हैं। निश्चित रूप से राज्य में पुलिस व सुरक्षा बलों को सर्वप्रथम अपनी विश्वसनीयता कायम करनी होगी। ये आने वाला वक्त बताएगा कि बीरेन सिंह के बाद सत्ता की बागडोर थामने वाला व्यक्ति किस हद तक स्थितियों को सामान्य बनाने में सक्षम होता है। सवाल यह भी है कि राज्य विधानसभा के लिये एक साल के भीतर होने वाले चुनाव क्या समय पर हो पाते हैं? बहरहाल, राज्य के मौजूदा हालात में निष्पक्ष और संवेदनशील शासन की जरूरत है, जिससे आहत लोगों के जख्मों पर मरहम लगाया जा सके। भले ही बीरेन सिंह ने राजनीतिक मजबूरी में ही इस्तीफा दिया हो, लेकिन शांति की संभावनाओं को इससे संबल जरूर मिलेगा। खासकर उन लोगों को राहत मिलेगी जो पूर्व मुख्यमंत्री पर पक्षपात के आरोप लगाते रहे हैं।

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