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पुल बने भाषा

राष्ट्रीय एकता के लिये चुनौती भाषाई टकराव
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इसमें दो राय नहीं कि भाषाई विविधता रंग-बिरंगे फूलों की तरह भारत की खूबसूरती की वाहक है। वहीं यह विविधता देश की सांस्कृतिक समृद्धि का आधार भी है। यह विडंबना ही है कि राजनीतिक लाभ के लिये क्षेत्रीय भाषा के गौरव के नाम पर हिंदी विरोध का मोर्चा अकसर खोला जाता है। निस्संदेह समय-समय पर उभरने वाले विवाद क्षेत्रीय गर्व और राष्ट्रीय एकता के बीच संतुलन बनाने की चुनौतियों को ही उजागर करते हैं। कुछ समय पहले ऐसे ही विवाद में मराठी को व्यवहार में न अपनाने के आरोप लगाकर एक अधिकारी को थप्पड़ मारने का विवाद सामने आया था। कालांतर भाजपा शासित राज्य में मराठी की अनिवार्यता कामकाज में लागू की गई थी। अब ताजा विवाद कर्नाटक में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक प्रबंधक के कन्नड़ में बात करने से इनकार करने पर उठा है। जिसका कहना था कि वह हिंदी भाषी है और हिंदी में वार्तालाप करेगा। इस प्रकऱण में अधिकारी का तबादला व खासा विवाद हुआ। स्वाभाविक रूप से क्षेत्रीय भाषा की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल खासे सक्रिय हुए। इस बीच जन सेवा में भाषाई संवेदनशीलता के प्रशिक्षण की मांग भी उठी। वैसे भी केंद्रीय सेवाओं के रूप में काम करने वाले विभागों व बैंक आदि के कर्मचारियों व अधिकारियों के विभिन्न राज्यों में अकसर तबादले होते रहते हैं। यह संभव भी नहीं कि हर व्यक्ति हर राज्य की भाषा बोल सके, लेकिन सीधे तौर पर जन-सेवाओं में कार्यरत कर्मचारियों को राज्य की स्थानीय भाषा का ही उपयोग उपभोक्ताओं से सहज संवाद के लिये करना चाहिए। वहीं दूसरी ओर बेंगलुरू में एक तकनीकी पेशेवर को हिंदी में बोलने के कारण पार्किंग की सुविधा से वंचित कर दिया गया। इस घटना ने गैर हिंदी भाषी इलाकों में भाषायी सहिष्णुता की बहस को नये सिरे से खड़ा किया। निश्चित रूप से दोनों ही घटनाएं भाषाई व सांस्कृतिक एकता के लिये चुनौती पेश करती हैं। जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

उल्लेखनीय है कि ये घटनाएं राष्ट्रीय शिक्षा नीति यानी एनईपी 2020 के त्रि-भाषा फार्मूले की पृष्ठभूमि में हुई हैं। दरअसल, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में छात्रों को तीन भाषाएं सीखने की सलाह दी गई है। जिसमें कम से कम दो भारत की मूल भाषाएं होनी चाहिए। हालांकि, इस शैक्षिक नीति का मकसद बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देना है,लेकिन तमिलनाडु में इस नीति का प्रतिरोध सामने आया है। राजनीतिक दल इसे हिंदी थोपने और अपनी भाषाई पहचान के लिये खतरा बता रहे हैं। तमिलनाडु में हिंदी को लेकर विरोध की राजनीति का पुराना इतिहास रहा है। खासकर तब से जब हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कवायद शुरू हुई थी। हालांकि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति लचीलेपन के साथ इस बात पर जोर देती रही है कि किसी भी राज्य पर कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी। इसके साथ यह भी कि भाषाओं के चयन का मुद्दा राज्य, क्षेत्रों और छात्रों पर छोड़ दिया जाएगा। वहीं कतिपय राजनीतिक दल आरोप लगाते रहे हैं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा का व्यावहारिक क्रियान्वयन एक विवादस्पद मुद्दा है। बहरहाल, इस मुद्दे पर क्षेत्रीय भाषाओं पर इसके प्रभाव और हिंदी के कथित प्रभुत्व को लेकर बहस चल रही है। बहरहाल, इस तरह के विवादों से आगे बढ़ने के लिये आपसी सम्मान और समझ का माहौल बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है। सार्वजनिक संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उनकी सेवाएं स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराई जाएं। इसके साथ ही कर्मचारियों व अधिकारियों को सांस्कृतिक और भाषाई संवेदनशीलता में प्रशिक्षित किया जाए। निस्संदेह, शैक्षिक नीतियों को पूरे लचीलेपन के साथ लागू किया जाना चाहिए। जिसमें बहुभाषी दक्षता को बढ़ावा देते हुए क्षेत्रीय प्राथमिकताओं का सम्मान किया जाना चाहिए। निस्संदेह, भारत की भाषाई बहुलता को एक विभाजनकारी कारक के बजाय एक एकीकृत शक्ति के रूप में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। देश की विविध भाषाओं को सहानुभूति और खुलेपन के साथ अपनाकर, हम अपने राष्ट्र के ताने-बाने को मजबूत कर सकते हैं। साथ ही यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि भाषा एक पुल बने, न कि एक बाधा।

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