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न्याय जैसा हो न्याय

तारीख पे तारीख की संस्कृति भी बदले

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यह सुखद ही है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 75 साल का गरिमामय सफर पूरा कर लिया है। संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के प्रयासों में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका को यादगार बनाने के लिये बाकायदा डाक टिकट व सिक्के भी हाल ही में जारी किये गए। लेकिन पिछले दिनों न्यायिक बिरादरी के विभिन्न आयोजनों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश ने इस बात पर बल दिया कि समय पर न्याय मिलने से ही न्याय का वास्तविक लक्ष्य पूरा होता है। सभी ने शीघ्र न्याय की जरूरत को स्वीकारते हुए कहा कि ‘तारीख पे तारीख’ की संस्कृति से तौबा करने का वक्त आ गया है? यही वजह है कि जिला न्यायपालिका के दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये अदालतों में स्थगन की संस्कृति को बदलने के प्रयास करने की सख्त जरूरत है। उन्होंने स्वीकारा कि अदालतों में बड़ी संख्या में लंबित मामलों का होना हम सभी के लिये बड़ी चुनौती है। इससे पहले जिला न्यायपालिका के राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में त्वरित न्याय की आवश्यकता पर बल दिया था ताकि महिलाओं में अपनी सुरक्षा को लेकर भरोसा बढ़ सके। निस्संदेह, हाल के वर्षों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में तेजी से वृद्धि हुई है, जिससे हमारे समाजशास्त्री और कानून लागू करवाने वाली विभिन्न एजेंसियां भी हैरान-परेशान हैं। लेकिन यहां विचारणीय प्रश्न यह भी कि जिला स्तर पर न्यायालयों में लंबित मामलों का ग्राफ लगातार क्यों बढ़ता जा रहा है। जिला अदालतों में साढ़े चार करोड़ मामलों का लंबित होना हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। जिसके लिये न्यायिक प्रकिया से जुड़े कामकाज की समीक्षा होनी जरूरी है। वहीं दूसरी ओर विभिन्न मुख्य न्यायाधीशों ने बार-बार निचली अदालतों में न्यायाधीशों की कमी का मुद्दा भी उठाया है। जाहिरा तौर पर संसाधनों की कमी भी न्यायिक प्रक्रिया की गति को प्रभावित करती है।

दरअसल, कुछ समाजशास्त्री मानते रहे हैं कि महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की वजह वह जटिल व्यवस्था भी है, जिसके चलते अपराधी बच निकलने का रास्ता निकाल लेते हैं। किसी भी वारदात के बाद आम विमर्श का विषय होता है कि अपराधियों में पुलिस व कानून का भय नहीं रह गया है। कुछ लोग मानते हैं कि सख्त कानून के साथ ही त्वरित न्याय भी अपराधियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना पाएगा। कोलकाता में एक मेडिकल कालेज के अस्पताल में महिला डॉक्टर से दुष्कर्म व हत्या कांड ने पूरे देश को उद्वेलित किया है। पूरे देश में अपराधियों को शीघ्र व सख्त दंड देने की मांग की जा रही है। यदि पुलिस व जांच एजेंसियां पुख्ता सबूतों के साथ अदालत में पहुंचें तो गंभीर मामलों में आरोप जल्दी सिद्ध हो सकेंगे। यही वजह है कि देश में शीर्ष स्तर पर भी यह धारणा बलवती हो रही है कि विभिन्न हितधारक सामूहिक जिम्मेदारी निभाएं, जिससे उस धारणा को तोड़ा जा सकता है कि न्याय देने वाली प्रणाली तारीख पर तारीख की संस्कृति को बढ़ावा देती है। विश्वास किया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के 75 वर्ष होने पर शीर्ष न्यायिक नेतृत्व लंबित मामलों के निपटारे के लिये नई प्रभावी रणनीति बनाएगा। निर्विवाद रूप से देश के सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर ऐसे युगांतरकारी फैसले दिये हैं, जिन्होंने न केवल संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की बल्कि महिलाओं-बच्चों व पीड़ित पक्षों को न्याय भी दिलाया है। साथ ही समय-समय पर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की है। यही वजह है कि व्यक्ति न्यायालय को अंतिम न्याय की किरण के रूप में देखता रहा है। शीर्ष न्यायालय ने जनाकांक्षाओं से जुड़े गंभीर मामलों में कई बार स्वत: संज्ञान लेते हुए संकटमोचक की भूमिका भी निभायी है। हाल ही में कोलकाता की डॉक्टर के साथ हुए वीभत्स कांड के बाद डॉक्टरों की सुरक्षा के लिये राष्ट्रीय प्रोटोकॉल तैयार करने में भी शीर्ष अदालत ने बड़ी पहल की थी। निस्संदेह, भारतीय न्यायिक व्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली जिला अदालतें भी इस दिशा में बदलावकारी पहल कर सकती हैं। जिससे आम आदमी का न्यायिक व्यवस्था में भरोसा और मजबूत हो सकेगा।

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