मध्य प्रदेश के खारगोन से वाया दिल्ली होती हुई सांप्रदायिक हिंसा की तपिश कर्नाटक के हुबली तक जा पहुंची है। ऐसा पहले बार नहीं है कि बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों के त्योहार आसपास गुजरे हैं। लेकिन हाल-फिलहाल इनको लेकर टकराव की घटनाएं विचलित करती हैं। निस्संदेह, इस हिंसा के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। देश देख रहा है कि राज्यों में चुनाव से पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जो कुत्सित कोशिशें होती हैं, वे समाज में भय का वातावरण बना देती हैं। एक आम आदमी को लगता है कि देश का वातावरण कितना विषैला हो गया है लेकिन चुनाव संपन्न होते ही सन्नाटा पसर जाता है। जाहिर है यह कटुता कृत्रिम है और इसके राजनीतिक लक्ष्य होते हैं। निस्संदेह धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। इसके सार्वजनिक प्रदर्शन का कोई तार्किक आधार नहीं है। सदियों से निरंतर अक्षुण्ण रही सनातन संस्कृति विदेशी आक्रांताओं के दमन के बावजूद विद्यमान रही है। जरूरी नहीं है कि सार्वजनिक प्रदर्शन से उसका कोई भला होगा। यदि सार्वजनिक आयोजन हों भी तो उनकी भाषा संयत होनी चाहिए। इसका मतलब यह भी नहीं है कि हमलावरों के कृत्य को सही ठहराया जाये। धर्म वही बड़ा होता है, जिसमें सहिष्णुता हो। बड़ी लकीर खींचने का अभिप्राय कभी दूसरों की लकीर मिटाना नहीं होता। वैसे भी ऐसी हिंसा से समाज का कमजोर वर्ग ही प्रभावित होता है। खासकर रोज कमाकर खाने वाला वर्ग। देश की प्रगति के लिये धार्मिक सहिष्णुता अनिवार्य शर्त है।
निस्संदेह, हाल ही की हिंसा की घटनाएं परेशान करने वाली हैं। ऐसे में सवाल राजनीतिक नेतृत्व पर भी उठता है कि उनकी विचारधारा वाले संगठन क्यों अतिरंजित बयानों से उकसाने की गतिविधियों में लिप्त होते हैं। सवाल यह भी कि शीर्ष नेतृत्व के प्रगतिशील विचार व सहिष्णुता की बयानबाजी का निचले स्तर पर असर क्यों नहीं होता, ये कथनी -करनी का अंतर क्यों नजर आते हैं। सवाल यह भी है कि आजादी को अमृत महोत्सव मनाते वक्त हम धार्मिक सहिष्णुता का पाठ नागरिकों को क्यों नहीं पढ़ा पाये। हम पिछले सात दशक में लोगों को इतना परिपक्व क्यों नहीं बना पाये कि वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों को सिरे से खारिज कर सकें। जब देश में विकास की प्राथमिकताओं की बात होती है तो फिर सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की जरूरत क्यों होती है? यह देश एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। बहुसंख्यकों के यदि अधिकार हैं तो दायित्व भी बड़े भाई जैसे हैं लेकिन वहीं अल्पसंख्यकों को भी उत्पात का अधिकार नहीं मिल जाता। यह भी कि देश में सत्तारूढ़ दल को भी अल्पसंख्यकों द्वारा सिरे से खारिज नहीं करना चाहिए। ऐसा संदेश क्यों जाता है कि फलां जगह इस दल का नेता है तो उसे अल्पसंख्यकों के वोट नहीं मिलेंगे। निस्संदेह, देश के सांप्रदायिक सौहार्द को खराब करने में राजनीतिक दलों की बड़ी भूमिका रही है, लेकिन इस तथ्य को बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक समाज को भी गंभीरता से लेना होगा कि किसी भी तरह का ध्रुवीकरण अंतत: सामाजिक समरसता के लिये घातक होता है। यह जानते हुए कि बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों, दोनों को इस देश में ही रहना है तो बेहतर है कि मिलजुल कर रहें।