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बुलडोजर से नाइंसाफी

कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना चिंताजनक
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यह पहली बार नहीं है कि देश की शीर्ष अदालत को कहना पड़ा कि कथित अवैध निर्माणों के खिलाफ बुलडोजर की कार्रवाई न्याय के नैसर्गिक नियमों का उल्लंघन है। लेकिन ऐसी बलपूर्वक की गई कार्रवाई को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में बुलडोजर की नाइंसाफी नजर आई। कोर्ट का कहना था कि यह बुलडोजरी अन्याय केवल झुग्गियों व मकानों को ही नहीं गिरा रहा है, बल्कि यह कानून की उचित प्रक्रिया व अनुच्छेद 21 का भी अतिक्रमण है। जो हर नागरिक के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी देता है। शीर्ष अदालत ने प्रयागराज में घरों को गिराए जाने को अमानवीय और अवैध बताते हुए शहरी विकास प्राधिकरण को प्रत्येक पीड़ित घर के मालिक को दस लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया है। कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर में अतिक्रमण विरोधी अभियान के दौरान घटी उस घटना को तंत्र की संवेदनहीनता बताया जिसमें बुलडोजर द्वारा झोपड़ी गिराए जाने पर एक बालिका अपनी किताबें पकड़कर भाग रही थी। अदालत का कहना था कि तसवीर देश की अंतरात्मा को झकझोर देने वाली है। साथ ही अधिकारियों की मनमानी और असंवेदशीलता को उजागर करती है। कहा गया कि अतिक्रमणकारियों को खुद की स्थिति को स्पष्ट करने का उचित अवसर दिए बिना बुलडोजर से उनके मकान या झोपड़ियों को ध्वस्त करना अन्याय जैसा ही है। जिससे निष्कर्ष निकलता है कि प्रशासन का इरादा अनधिकृत निर्माण को हतोत्साहित करने के बजाय उन्हें सबक सिखाना लगता है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में शासन-प्रशासन कथित ‘तत्काल न्याय’ के बुलडोजर मॉडल को लागू करने में सबसे आगे रहा है। इस विवादास्पद कार्रवाई का बचाव करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा था कि कभी-कभी कुछ लोगों को उनकी समझ में आने वाली ‘भाषा’ में चीजों को समझाने की जरूरत होती है। जिसके मायने यह भी हैं कि ऐसे तत्वों को अदालतों द्वारा उन्हें दोषी या निर्दोष ठहराये जाने का इंतजार किए बिना ही दंडित किया जाएगा।

उल्लेखनीय है कि बीते साल नवंबर में, सर्वोच्च न्यायालय ने बुलडोजर के लगातार इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिये कई दिशा-निर्देश दिए थे। इसमें मकान आदि के ध्वस्तीकरण से पंद्रह दिन पहले कब्जाधारियों को सचेत करना भी शामिल था। अदालत ने तो यहां तक चेतावनी दी थी कि निर्देशों का अतिक्रमण करने वाले दोषी अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाएगी। उनके खिलाफ मुकदमा चलाया जाएगा। लेकिन इसके बावजूद जमीनी हकीकत में बदलाव नहीं आया। इसमें दो राय नहीं कि सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण के प्रति शून्य-सहिष्णुता का नजरिया जरूरी है। अवैध निर्माण हटाया जाना चाहिए, लेकिन सभी कायदे-कानूनों का पालन भी उतना ही जरूरी है। अदालत मानती रही है कि जल्दबाजी में बुलडोजर का इस्तेमाल असंवैधानिक है और नागरिक अधिकारों का उल्लंघन भी है। जिसकी कानून इजाजत नहीं देता। प्रयागराज व महाराष्ट्र में कई जगह लोगों ने आरोप लगाया कि नोटिस देने के चौबीस घंटों में ही उनके मकान गिरा दिए गए। ऐसी ही कार्रवाई नागपुर हिंसा के बाद आरोपियों के घर गिराने में की गई। कहा गया कि लोगों को अपील करने का भी मौका नहीं दिया गया। वैसे यह नैसर्गिक न्याय की अवहेलना है कि एक कथित दोषी के कृत्यों की सजा उसके पूरे परिवार को दी जाती है। उस घर में उस व्यक्ति के परिवार के अन्य सदस्य भी रहते हैं। यह विडंबना है कि नागपुर मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बैंच ने आरोपियों की संपत्ति के खिलाफ कार्रवाई पर रोक लगायी थी, लेकिन जब तक आदेश पहुंचा तब तक स्थानीय प्रशासन कार्रवाई कर चुका था। वैसे हकीकत यह भी है कि कोई अवैध निर्माण रातोंरात खड़ा नहीं हो जाता। जब उसका निर्माण होता है तो स्थानीय प्रशासन की नजर उस पर क्यों नहीं जाती। एकाएक ऐसी स्थिति क्यों पैदा हो जाती है कि उसे गिराने की तत्काल जरूरत पड़ती है। फिर तुरत-फुरत बुलडोजर चल जाता है। सवाल यह भी कि हर छोटे-बड़े, धनाढ्य वर्ग, प्रभावशाली नेताओं के अवैध निर्माण पर पीला पंजा क्यों नहीं चलता? निस्संदेह, बुलडोजर की गति राजाश्रय के संरक्षण में ही तेज होती है।

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