लाइलाज प्लास्टिक
इसमें दो राय नहीं कि मानव जीवन की सुविधा के लिये बना प्लास्टिक आज हमारी धरती के लिये ही घातक साबित हो रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्लास्टिक हमारे ग्रह का दम घोंट रहा है। निस्संदेह, इसको नष्ट करना बेहद कठिन है क्योंकि धरती में दबाएं तो भूमि की उर्वरता पर संकट आता है। इसको जलाएं तो विषैली गैसों से वातावरण प्रदूषित होता है। ये जल्दी से गलता भी नहीं है। अब तो महानगरों व शहरों की जलनिकासी को प्लास्टिक गहरे तक बाधित कर रहा है। यहां तक कि प्लास्टिक के बारीक कण मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। प्लास्टिक समुद्र में जा रहा है तो मछलियों को जहरीला बना रहा है। नदी, पहाड़ और मैदान सब प्लास्टिक कचरे के आगोश में हैं। लेकिन सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि भयावह संकट के बावजूद इससे निबटने के उपायों को लेकर वैश्विक सहमति नहीं बन पा रही है। वैश्विक प्लास्टिक संधि पर जिनेवा वार्ता विफल होने से इस बाबत वैश्विक विभाजन पूरी तरह उजागर हो गया है। दरअसल, लगभग सत्तर देशों का एक उच्च महत्वाकांक्षी समूह, जो प्लास्टिक पर वैश्विक सीमा और खतरनाक रसायनों पर नियंत्रण की मांग कर रहा है, अब तेल व पेट्रोकेमिकल उत्पादक एक समूह के खिलाफ खड़ा है, जो रीसाइक्लिंग, अपशिष्ट प्रबंधन और स्वैच्छिक प्रतिबद्धताओं को दर्शा रहे हैं। इस समूह में भारत भी शामिल है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक होने का दर्जा दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वैश्विक प्लास्टिक उत्सर्जन में लगभग बीस फीसदी हिस्सा भारत का है। भारत इस बात पर जोर देता रहा है कि इस दौरान चरणबद्ध समाप्ति की समय सीमा वाले उत्पादों या रसायनों की कोई वैश्विक सूची नहीं होनी चाहिए। भारत की दलील तार्किक है कि विभिन्न देशों की राष्ट्रीय परिस्थितियों और क्षमताओं पर उचित विचार किया जाना चाहिए। विडंबना यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले पेट्रोकेमिकल क्षेत्र, माइक्रो प्लास्टिक प्रदूषण का भी एक प्रमुख स्रोत है।
लेकिन इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इस तरह के प्रदूषण का पारिस्थितिकीय तंत्र, जैव विविधता और मानव स्वास्थ्य पर गहरा असर होता है। खासकर हमारे शरीर पर पड़ने वाले घातक प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। निश्चित रूप से यह एक हकीकत है कि औद्योगिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन साधना एक टेढ़ी खीर है। लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में सार्थक प्रयास करने जरूरी हैं। इस संकट से मुकाबला करने के लिये भारत को समान विचारधारा व परिस्थितियों वाले चीन, रूस और सऊदी अरब जैसे देशों के साथ मिलकर काम करना होगा। बहुत संभव है कि प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय कानून बाध्यकारी साधन के रूप में कारगर सिद्ध हो सके, लेकिन इससे लोगों और पर्यावरण के प्रति सरकारों की जिम्मेदारी कम नहीं हो सकती। बहुत संभव है कि प्रदूषणकारी उद्योगों पर कार्रवाई कड़ा संदेश दे सकती है। वहीं दूसरी ओर भारत सरकार को पहचाने गए एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध की प्रभावशीलता और उसके प्रवर्तन में कमियों का भी गंभीरता से आकलन करना चाहिए। इसके लिये जनजागरण अभियान चलाने की भी जरूरत है ताकि लोग प्लास्टिक के विकल्प अपनाने के प्रति उत्साह दिखाएं। अंतत: सभी प्रमुख हितधारकों – केंद्र सरकार व राज्यों की सरकारें, जनता, उद्योग जगत को देश में प्लास्टिक के खतरनाक स्तर को कम करने में मदद करने के लिये आगे आना होगा। हमें ध्यान रखना होगा कि भारत को विकसित, आत्मनिर्भर और समृद्ध बनाने का सपना पर्यावरण अनुकूल दृष्टिकोण को अपनाए बिना पूरा नहीं हो सकता। यह हमारे पर्यावरण संरक्षण के अलावा नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा भी है। लोगों को समझना होगा कि सिंगल यूज प्लास्टिक के विकल्प अपनाने में उनका ही लाभ है। हम बाजार से सामान लाने में प्लास्टिक के थैलियों के इस्तेमाल के बजाय कपड़े या अन्य वैकल्पिक साधनों को अपनाएं। हमें स्कूली पाठ्यक्रमों में भी प्लास्टिक संकट को एक विषय के रूप में अपनाना होगा। ताकि देश की भावी पीढ़ी प्लास्टिक के खतरों से अवगत हो। हमारी साझी पहल ही रंग ला सकती है।