अमेरिका के टेक्सास में एक किशोर द्वारा की गई गोलीबारी में 19 बच्चों व दो शिक्षिकाओं की हत्या से पूरा अमेरिका स्तब्ध है। घटना से दस दिन पहले भी एक किशोर ने न्यूयॉर्क की एक दुकान में दस लोगों की हत्या कर दी थी। हालिया घटना वर्ष 2012 में सैंडी हुक एलीमेंट्री स्कूल में बीस बच्चों व शिक्षकों समेत 26 लोगों की हत्या के बाद अमेरिकी स्कूलों में गोलीबारी की दूसरी बड़ी घटना है। उसी साल एक श्वेत वर्चस्ववादी ने विस्कॉन्सिन गुरुद्वारे में छह सिखों की हत्या भी कर दी थी। स्थिति कितनी भयावह है कि पिछले साल अमेरिका के स्कूलों में गोलीबारी की 26 घटनाएं हुई। विडंबना यह है कि कोरोना संकट के बाद उपजे हालात में गोलीबारी की घटनाओं में दो गुना इजाफा हुआ है। घटना के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का जैसा हताशाभरा बयान आया है, वह अमेरिकी समाज की विसंगतियों को ही उजागर करता है। अमेरिका की व्यवस्था में बंदूक लॉबी के वर्चस्व का पता इस बात से चलता है कि दुनिया की नंबर एक महाशक्ति के मुखिया को कहना पड़ रहा है कि हम बंदूक लॉबी के खिलाफ मजबूती से कब खड़े होंगे। निस्संदेह, अमेरिकियों का बंदूक मोह भस्मासुर बनकर उन्हें ही स्वाह करने लगा है। बंदूक संस्कृति पर रोक लगाने के लिये सख्त कानून बनाने की हर कोशिश को गन लॉबी विफल कर देती है। बाकायदा मोटा चंदा राजनीतिक दलों को देकर वे मनमानी कर रहे हैं। यद्यपि हर अमेरिकी के पास बंदूक है लेकिन यह संस्कृति अमेरिकी नागरिकों को सुरक्षित महसूस करवाने में विफल रही है। बताया जाता है कि सौ अमेरिकियों के पास 112 बंदूकें हैं। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1968 से वर्ष 2017 के बीच पंद्रह लाख लोगों की जान बंदूकों से गई है। अमेरिका में सीडीसी की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 में 45 हजार लोग बंदूकों की वजह से मारे गये। इसमें आधी आत्महत्याएं हैं। बहरहाल, हालिया घटनाओं के बाद अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने से डर रहे हैं।
बहरहाल, अमेरिका के स्कूलों में गोलीबारी की घटनाएं समाज को आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत बता रही हैं। इसके लिये मानसिक स्वास्थ्य के अध्ययन की भी जरूरत है। अमेरिकी समाज को सोचना होगा कि आलू-प्याज की तरह बंदूकों की खरीद-फरोख्त कब तक चलेगी। सवाल यह कि स्कूल ही गोलाबारी के निशाने पर क्यों हैं। आखिर टेक्सास में सात से दस वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को निशाना बनाकर हमलावर क्या हासिल करना चाह रहा था। बंदूक संस्कृति की आंच हमलावरों के घरों को भी लीलती है। इस हमलावर ने स्कूल पहुंचने से पहले अपनी दादी को गोली मारी थी। निस्संदेह, इन घटनाओं के मूल में सामाजिक विसंगतियां भी हैं। रंगभेद से ग्रसित अमेरिकी समाज आर्थिक विषमता व पारिवारिक बिखराव की त्रासदी भी झेल रहा है। बताते हैं टेक्सास का हमलावर गरीब परिवार का था और उसके सहपाठी उसकी गरीबी व कपड़ों का मजाक बनाया करते थे। कोरोना संकट के बाद समाज में गरीबी, असमानता और अपनों को खोने की टीस से किशोरों में आक्रोश बढ़ा है। लेकिन अमेरिकी समाज को सोचना होगा कि इस महामारी का असर तो पूरी दुनिया पर है फिर अमेरिका में ही गोलीबारी की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं। जाहिर है अमेरिकी समाज में कुछ ऐसा घट रहा है जिसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। अमेरिका की नेशनल एसोसिएशन ऑफ स्कूल साइकोलॉजिस्ट के विशेषज्ञ कह रहे हैं कि किशोरों के हिंसक होने के मूल में अन्य कारकों के अलावा हिंसा दिखाने वाले कार्यक्रम हैं, जिनके वे आदी हो चुके हैं। युवा हिंसा वाले वीडियो खेलते हैं, फिल्में देखते हैं और हिंसक हो जाते हैं। कई बार पारिवारिक विघटन से भी वे खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। कुछ युवाओं को लगता है कि उन्हें नकारा जा रहा है। कई बच्चे वे भी हैं जो कई तरह की सामाजिक हिंसा का शिकार हुए हैं। इसमें बुलीइंग का शिकार बच्चे भी शामिल हैं। चिंता की बात यह है कि भारत में भी बच्चे मोबाइल और कंप्यूटर पर इन वीडियो गेमों के आदी होते जा रहे हैं। भारतीय समाज में भी इस आसन्न खतरे पर गंभीर विमर्श होना चाहिए।