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फ़लस्तीन के हक में

जमीनी हकीकत में भी हो बदलाव
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गाजा में फलस्तीनियों के चौरतरफा दमन के बीच यदि ब्रिटेन, कनाडा और आस्ट्रेलिया ने फलस्तीन राज्य को मान्यता दी है तो इसे बड़े कूटनीतिक बदलाव के रूप में देखना चाहिए। अमेरिका की इच्छा के विपरीत यदि जी-7 के देश फलस्तीन राज्य को समर्थन दे रहे हैं तो इसके गहरे निहितार्थ हैं। जो इस्राइल को असहज करने वाले होंगे, क्योंकि इस्राइल द्विराष्ट्र सिद्धांत को मानने को कभी राजी नहीं हुआ है। अभी कई देश मान्यता देने का मन बना रहे हैं। अमेरिकी संरक्षण में फलस्तीनियों के दमन में लगे इस्राइल पर वैश्विक जनमत का कोई तत्काल असर नजर नहीं आता है, लेकिन देर-सवेर स्थितियां जरूर बदलेंगी। बहरहाल, इस्राइल-हमास के संघर्ष में पिसते फलस्तीनियों की पहचान का मुद्दा फिर जोर पकड़ रहा है। केवल जी-समूह के देश ही नहीं, फ्रांस भी फलस्तीनियों को मान्यता देने का मन बना चुका है। गाजा में मानवता के क्रंदन से दुनिया के सभी बड़े देश विचलित हैं और अपने-अपने देशों में जन-दबाव महसूस कर रहे हैं। सवाल यह है कि जब संयुक्त राष्ट्र के तीन-चौथाई से ज्यादा सदस्यों ने फलस्तीनी राज्य के दर्जे को वैधता प्रदान कर दी है, तो जमीनी हकीकत में बदलाव क्यों नहीं आ रहा है। बहरहाल, लंबे समय से आत्मनिर्णय की गरिमा से वंचित लाखों लोगों के लिए, यह अधिकारों की पुष्टि और प्रतीकात्मक जीत दोनों ही हैं। लेकिन यह भी हकीकत है कि कागजी मान्यता से जमीनी हकीकत नहीं बदलने वाली। पश्चिमी तट पर इस्राइली बस्तियों का विस्तार निर्बाध रूप से जारी है। दूसरी ओर गाजा की नाकाबंदी भी अभी जारी है। राहत सामग्री बांटने के नाम पर जिस तरह भूखे लोगों का दमन किया गया, उसने सभ्य दुनिया के औचित्य पर सवाल ही उठाये हैं। गाजा में समय-समय पर हिंसा भड़कती रहती है, जिससे फिलहाल स्थिरता की कोई सूरत नजर नहीं आती। फलस्तीनी आज भी तरह-तरह के प्रतिबंधों के बीच जिंदगी के दिन गिन रहे हैं।

निस्संदेह, इस्राइल द्वारा लगाये गए तमाम प्रतिबंध फलस्तीन की संप्रभुता की अवधारणा का मजाक ही उड़ाते हैं। वास्तव में पश्चिमी देशों द्वारा दी गई मान्यता जब तक व्यावहारिक उपायों मसलन राजनीतिक, आर्थिक और कानूनी प्रावधानों द्वारा समर्थित नहीं होती, तब तक इन घोषणाओं का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व ही रह जाता है। विडंबना यह भी है कि जी-7 के अन्य प्रमुख देश अमेरिका, जर्मनी, इटली और जापान ने फलस्तीन को मान्यता देने से इनकार किया है। उनकी दलील है कि यह प्रश्न इस्राइल की सुरक्षा चिंताओं से जुड़ा है। लेकिन वास्तव में शांति इस आधार पर कायम नहीं की जा सकती है कि एक व्यक्ति के अधिकार दूसरे की सुरक्षा की भावना पर निर्भर हों। द्विराष्ट्र समाधान, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने एकमात्र व्यवहार्य ढांचे के रूप में समर्थन दिया है, समानता की मांग करता है। भारत ने वर्ष 1988 में फलस्तीन को मान्यता दी थी। साथ ही इस्राइल के साथ घनिष्ठ संबंध बनाते हुए भी उसके राज्य के दर्जे के पक्ष में समर्थन व्यक्त किया है। लेकिन, मौजूदा संघर्ष के दौरान, भारत ने प्रतिक्रिया देने में स्पष्ट रूप से देरी की है। निश्चिय ही यह भारत की ऐतिहासिक एकजुटता और रणनीतिक साझेदारी के बीच सतर्क संतुलन को ही दर्शाता है। दरअसल, यह हिचकिचाहट नैतिक स्पष्टता और व्यावहारिक राजनीति के साथ संरेखित करने की कठिनाई को रेखांकित करती है। बहरहाल, मान्यता की लहर को केवल नैतिक दिशासूचक के रूप में देखा जा सकता है। वास्तव में गाजा संकट की विभीषिका के बीच बस्तियों के विस्तार को रोकने, प्रतिबंधों को हटाने, मानवीय पहुंच सुनिश्चित करने तथा विश्वसनीय वार्ता को आगे बढ़ाने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं होता तो फलस्तीन सिर्फ एक नाममात्र का राज्य बनकर रह जाएगा। यह इस बात की भी परीक्षा है कि क्या अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में तत्काल कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति है। दुनिया के देशों को ध्यान रखना चाहिए कि इस्राइल व हमास संघर्ष शुरू होने के बाद से 65 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें अधिकांश आम लोग हैं। इसके अलावा लाखों लोग भुखमरी और विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। वहीं कतर की राजधानी दोहा पर इस्राइली हमले के बाद गाजा में संघर्षविराम की स्थिति भी धूमिल होती नजर आ रही है।

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