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सबसे गर्म दशक

नियंत्रण से बाहर होता जलवायु परिवर्तन

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यह दुनिया के नीति-नियंताओं के लिये गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग ने घातक स्तर पर दस्तक देनी शुरू कर दी है। वर्ष 1990 के बाद के सभी दशकों में हमारा वातावरण लगातार गर्म होता जा रहा है। हरेक दशक पिछले दशक की तुलना में अधिक गर्म रहा है। लेकिन वर्ष 2011 से 2020 का दशक अब तक सबसे ज्यादा गर्म रहा है। जो जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों की ओर इशारा कर रहा है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन यानी डब्ल्यूएमओ ने चेतावनी दी है कि इस चिंताजनक स्थिति में बदलाव की प्रवृत्ति में सुधार के तात्कालिक संकेत नजर नहीं आते। डब्ल्यूएमओ की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती सघनता भूमि और समुद्र के तापमान में वृद्धि कर रही है। जिसके फलस्वरूप ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने से समुद्र के जलस्तर में नाटकीय ढंग से वृद्धि दर्ज की जा रही है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि पिछले दशक में दुनिया भर के ग्लेशियर औसतन प्रतिवर्ष एक मीटर पतले हो गए हैं। संकट की स्थिति का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि इस सदी के पहले दशक के मुकाबले दूसरे दशक के दौरान अंटार्कटिक महाद्वीपीय बर्फ की चादर में 75 फीसदी की कमी आई है। यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि अंटार्कटिक महाद्वीप की यह बर्फ की चादर दुनिया के लिये रेफ्रीजरेटर का काम करती है। इस संकट के निहितार्थ यह हैं कि दुनिया में ताजे पानी की उपलब्धता में तेजी से कमी आएगी। वहीं दूसरी ओर समुद्र का जलस्तर बढ़ने से निचले तटीय इलाकों में बसे शहरों में जल प्लावन का संकट पैदा होगा। फलत: बड़े पैमाने पर पलायन का संकट पैदा हो सकता है। लेकिन इस आसन्न संकट के बावजूद दुनिया के विकसित देश पर्यावरण संकट को दूर करने के प्रयासों को लेकर एकजुट नजर नहीं आते। जिसका खमियाजा विकासशील देशों को खतरनाक ढंग से भुगतना पड़ रहा है।

निस्संदेह, ये संकेत बता रहे हैं कि दुनिया का मौसम बेहद खतरनाक होता जा रहा है। जिसका हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास पर स्पष्ट नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। वैसे यह भी एक हकीकत है कि दुनिया में विज्ञान व संचार क्रांति के चलते प्राकृतिक आपदाओं का पूर्व अनुमान लगाना संभव हो सका है। जिसके चलते हम लाखों जिंदगियों को बचाने में सक्षम होते हैं। भारत में लगातार आ रहे चक्रवात व तूफानों के पूर्वानुमान से समय रहते लाखों लोगों को सुरक्षित स्थानों पर अल्पकाल के लिये स्थानांतरित किया जा सका है। आधुनिक तकनीक के चलते मानवीय क्षति को जरूर कम किया गया, लेकिन हमारा आर्थिक नुकसान खासा बढ़ा है। नागरिक जीवन से जुड़े संरचनात्मक विकास को इन आपदाओं से भारी क्षति हुई है। निश्चित रूप से चेतावनी प्रणालियों और आपदा प्रबंधन में सुधार के परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं में हताहतों की संख्या में गिरावट आई है। यह परेशान करने वाला तथ्य है कि पिछले एक दशक में आपदाओं से हुए विस्थापन में 94 फीसदी के लिये मौसम और जलवायु परिवर्तन संबंधी घटनाएं जिम्मेदार रही हैं। जहां एक ओर हीटवेव सबसे अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार थी, वहीं उष्णकटिबंधीय चक्रवातों ने सबसे अधिक आर्थिक क्षति पहुंचायी है। इन हालातों को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेंसी डब्ल्यूएमओ ने संकट से बचाव के लिये महत्वाकांक्षी जलवायु संरक्षण कार्रवाई का आह्वान किया है। दरअसल, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन कॉप-28 में जारी की गई रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रण से बाहर होने से रोकने के लिये प्राथमिकताएं तय करने की बात कही गई है। जिसमें प्रमुख रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने की अपील की गई है। दरअसल, अब तक जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिये जो प्राथमिकताएं तय की गई थीं, उनके पालन में गंभीरता नजर नहीं आ रही है। कोशिश होनी चाहिए कि जीवाश्म ईंधन के चरणबद्ध तरीके से समापन की संभावनाएं तलाशी जाएं। साथ ही जलवायु संरक्षण के लिये पर्याप्त वित्तीय संसाधन जुटाए जाएं। धरती पर आये इस बड़े संकट को दूर करने के लिये विकसित व विकासशील देशों को बेहतर तालमेल के साथ आगे बढ़ना होगा।

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