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भयावह असमानता

अमीरों की समृद्धि में भी भारी वृद्धि
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उदारीकरण व वैश्वीकरण के दौर के बाद पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता अपने चरम पर जा पहुंची है। एक तरफ लोग मूलभूत सुविधाओं के अभाव में सड़कों पर उतर रहे हैं तो दूसरी ओर अमीर से और अमीर होते लोगों की विलासिता के किस्से तमाम हैं। जिस बात की पुष्टि स्वतंत्र विशेषज्ञों के जी-20 पैनल द्वारा किए एक अध्ययन के निष्कर्षों में की गई है। इस अध्ययन के अनुसार, वर्तमान में वैश्विक स्तर पर असमानता भयावह स्तर तक जा पहुंची है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 और 2024 के बीच दुनिया भर में बनी नई संपत्तियों का बड़ा हिस्सा दुनिया के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पास है। जबकि निचले स्तर की आधी आबादी के हिस्से में एक प्रतिशत ही आया है। निस्संदेह, भारत भी इस स्थिति में अपवाद नहीं है। देश के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों ने केवल दो दशक में अपनी संपत्ति में 62 फीसदी की वृद्धि की है। दुनिया की इस चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में अमीर लगातार अमीर होते जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर गरीब गुरबत के दलदल से बाहर आने के लिए छटपटा रहे हैं। इस आर्थिक असमानता का ही नतीजा है कि अमीर व गरीब के बीच संसाधनों का असमान वितरण और बदतर स्थिति में पहुंच गया है। निस्संदेह, पैनल की हालिया रिपोर्ट नीति-निर्माताओं को असमानता के इस बढ़ते अंतर को पाटने के तरीके तलाशने और नये साधन खोजने के लिये प्रेरित करेगी। पिछले ही हफ्ते, केरल सरकार ने दावा किया था कि राज्य ने अत्यधिक गरीब तबके की गरीबी का उन्मूलन कर दिया है। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों ने इन दावों को लेकर संदेह जताया है। वहीं दूसरी ओर राज्य के विपक्ष ने भी इन दावों को सिरे से खारिज कर दिया है। लेकिन इसके बावजूद राज्य में जन-केंद्रित विकास और सामुदायिक भागीदारी के लाभों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। निस्संदेह, इस पहल ने हजारों अत्यंत गरीब परिवारों को भोजन, स्वास्थ्य सेवा और आजीविका के बेहतर साधनों तक पहुंचने में मदद की है।

इसमें दो राय नहीं कि यदि सरकारें वोट बैंक की राजनीति से इतर ईमानदारी से पहले करें तो गरीबी उन्मूलन की दिशा में सार्थक पहल की जा सकती है। चुनाव से पहले मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। यह एक हकीकत है कि कोई भी सुविधा मुफ्त नहीं हो सकती। इस तरह की लोकलुभावनी कोशिशों से राज्यों का वित्तीय घाटा ही प्रभावित होता है। जिसकी कीमत लोगों को विकास योजनाओं से दूर रहकर ही चुकानी पड़ती है। जनता को मुफ्त में सुविधाएं देने के बजाय ऋण व अनुदान से उत्पादकता बढ़ाकर उन्हें स्वावलंबी बनाना होगा। प्रत्येक चिन्हित गरीब परिवार के लिए सूक्ष्म योजनाएं तैयार करना और उन्हें क्रियान्वित करना उचित होगा। निस्संदेह, देश के अन्य राज्य भी अपनी जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार केरल के मॉडल को अपना सकते हैं। इसमें केंद्र व राज्य सरकारों को अनुकूल आंकड़ों का सहारा लेना भी जरूरी होगा। इस साल की शुरुआत में, विश्व बैंक ने बताया था कि भारत 2011-12 और 2022-23 के बीच 17 करोड़ लोगों को गरीबी की दलदल से बाहर निकालने में सफल रहा है। केंद्र सरकार ने अपने काम के लिये खुद की पीठ भी थपथपाई थी। हालांकि, गरीबी के अनुमानों की रिपोर्टिंग की कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठाये गए थे। निर्विवाद रूप से सभी हितधारकों को यह तथ्य समझना होगा कि केवल संख्याएं ही पूरी तस्वीर को नहीं उकेर सकती हैं। गरीबी कम करने के प्रयासों के दावों के मुताबिक जमीनी स्तर पर गुणात्मक बदलाव नजर भी आना चाहिए। हालांकि, अर्थशास्त्री आमतौर पर संपत्ति कर लगाने के पक्षधर नहीं होते हैं, लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अति-धनी लोग सरकारी खजाने में अपना उचित योगदान दें। अब चाहे कोई अमीर हो या गरीब, सबका ध्यान विकास पर केंद्रित किया जाना चाहिए। तभी देश उत्पादकता के क्षेत्र में आगे बढ़कर गरीबी उन्मूलन की दिशा में सार्थक प्रगति कर सकता है। यह पहल ही विकसित भारत के सपने को साकार करने में मददगार साबित हो सकती है।

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