आखिरकार डोनाल्ड ट्रंप की शांति का नोबेल पुरस्कार पाने की तीव्र आकांक्षा के बीच की गई पहल से गाजा में दो साल से जारी इस्राइल के निरंकुश हमलों पर रोक लगने की आस जगी है। मिस्र के शर्म अल-शेख रिसॉर्ट में अमेरिका की मध्यस्थता में शुरू हुई वार्ता ने दुनियाभर में भरोसा जगाया है कि अब गाजा संकट का समाधान निकल सकता है। वास्तव में दो साल से जारी इस्राइल-हमास संघर्ष में मानवता कराह रही है। हालांकि, इस संकट की शुरुआत हमास के क्रूर आतंकी हमले से ही हुई थी। दरअसल, यह संघर्ष 7 अक्तूबर, 2023 को हमास के आतंकवादियों द्वारा इस्राइल की धरती पर गए स्तब्धकारी क्रूर हमले के बाद शुरू हुआ था। इस जघन्य नरसंहार में इस्राइल व कुछ अन्य देशों के बारह सौ के करीब नागरिक मारे गए थे। इतना ही नहीं हमास के आतंकवादी 250 इस्राइली व अन्य देशों के लोगों को बंधक बनाकर ले गए थे ताकि इस्राइल पर वार्ता में दबाव बनाया जा सके। अभी कुछ जीवित बंधक तथा कुछ मृतकों के शव हमास के कब्जे में हैं, जिन्हें वह वार्ता में ढाल की तरह इस्तेमाल करता रहा है। इस घटनाक्रम को यहूदियों के सबसे बड़े नरसंहार के बाद दूसरा बड़ा खूनी दिन बताया गया था। जिसका जवाब इस्राइल ने गाजा को मटियामेट करके दिया, जिसमें हमास के आतंकवादियों समेत 67000 से ज्यादा फलस्तीनी मारे गए। जिसमें अधिकांश आम नागरिक थे। इस्राइल के लगातार जारी घातक हमलों से गाजा आज खण्डहर में तब्दील हो गया है। बताया जाता है कि करीब 22 लाख गाजावासियों में ज्यादातर बेघर हैं और भूख से जूझ रहे हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त स्वतंत्र वरिष्ठ जांचकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला था कि गाजा में इस्राइली हमलों की कार्रवाई नरसंहार की श्रेणी में आती है। मिस्र के शर्म अल-शेख रिसॉर्ट में अमेरिका की मध्यस्थता में शुरू हुई वार्ता के बाद कहा जा रहा है कि इस्राइल और हमास अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा प्रस्तावित 20-सूत्रीय योजना के कुछ हिस्सों को लेकर सहमत हो गए हैं।
बहरहाल, इस्राइल व हमास के समझौते की ओर बढ़ने से हमास के कब्जे में रखे गए बंधकों की रिहाई की उम्मीद भी जगी है। हालांकि, इस समझौता वार्ता का एक विवादास्पद मुद्दा हमास का निरस्त्रीकरण भी है, जिसे हमास स्वीकारने को तैयार नहीं हो रहा था। वहीं गाजा के शासन से हमास को बाहर रखे जाने के मुद्दे का भी वार्ता के परिणामों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इस वार्ता को लेकर भारत ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। भारत ने ट्रंप की योजना को फलस्तीन और इस्राइली लोगों के लिये दीर्घकालिक और स्थायी शांति, सुरक्षा और विकास का एक व्यवहार्य मार्ग बताते हुए, इस पहल की सराहना की है। निस्संदेह, भारत की यह सक्रिय प्रतिक्रिया हाल के वर्षों में गाजा संघर्ष में युद्धविराम से संबंधित संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों पर मतदान से उसके बार-बार परहेज करने के बिल्कुल विपरीत है। उल्लेखनीय है कि पिछले महीने ही भारत ने फलस्तीनी मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान और द्विराज्य विकल्प के क्रियान्वयन पर न्यूयॉर्क घोषणापत्र का समर्थन करने वाले संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था। इस परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण बदलाव तब देखा गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौ सितंबर को कतर पर हुए इस्राइली हमलों की निंदा की थी। हालांकि, उन्होंने इस बाबत हमलावर, इस्राइल का नाम लेने से परहेज किया था। इसमें दो राय नहीं कि ट्रंप की योजना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन देना स्पष्ट रूप से भारत और अमेरिका के संबंधों को पटरी पर लाने के एक प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। वैसे देखा जाए तो दिल्ली ने इस्राइल के मामले में काफी हद तक सावधानी बरती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि पहलगाम हमले के बाद आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के बचाव के अधिकार का इस्राइल ने पुरजोर समर्थन किया था। भारत को उम्मीद है कि पश्चिम एशिया में उसकी यह पहल अशांत क्षेत्र में शांति बहाल होने पर फायदेमंद साबित हो सकती है।