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माननीयों का मानदेय

वृद्धि में नैसर्गिक न्याय का तकाजा
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सोमवार को जारी संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा एक गजट नोटिफिकेशन के अनुसार सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा सांसदों के वेतन, भत्तों एवं पेंशन में एक अप्रैल 2023 से बढ़ोतरी की है। अब सांसदों का वेतन एक लाख से बढ़कर 1.24 लाख रुपये प्रतिमाह हो जाएगा। साथ ही दैनिक भत्ता दो हजार से ढाई हजार रुपये प्रतिदिन हो जाएगा। वहीं पूर्व सांसदों की पेंशन भी पच्चीस हजार से बढ़कर 31 हजार प्रतिमाह हो जाएगी। इसके साथ ही पांच साल से अधिक की सेवा के लिये सांसदों की अतिरिक्त पेंशन दो हजार से बढ़कर ढाई हजार रुपये हो जाएगी। उल्लेखनीय है कि इससे पहले सांसदों के वेतन व भत्तों में बदलाव अप्रैल 2018 में किया गया था। तर्क दिया जा रहा है कि माननीयों के वेतन में वृद्धि महंगाई और जीवन यापन की बढ़ती लागत के मद्देनजर की गई है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 के परिवर्तन के अनुसार सांसदों को अपने क्षेत्र में ऑफिस चलाने और लोगों से मिलने-जुलने हेतु सत्तर हजार रुपये का भत्ता भी मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें कार्यालय के व्यय हेतु साठ हजार रुपये महीना और संसद सत्र के दौरान हर दिन दो हजार रुपये का भत्ता भी मिलता है। कहा जा रहा है कि अब इन भत्तों में भी बढ़ोतरी होगी। उल्लेखनीय है कि माननीयों को हर साल फोन व इंटरनेट हेतु भत्ता, अपने परिवार के लिये 34 फ्री डोमेस्टिक फ्लाइट, निजी यात्रा के लिये रेल में प्रथम श्रेणी में यात्रा सुविधा, सड़क मार्ग से चलने पर ईंधन का खर्च व मुफ्त बिजली - पानी की सुविधा भी मिलती है। इसके अलावा सरकारी व निजी अस्पतालों में मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध करायी जाती है। यदि किसी रोग का भारत में पर्याप्त इलाज संभव न हो तो सरकार विशेष स्थिति में विदेश में उपचार के खर्च की अनुमति दे सकती है। साथ ही सरकारी आवास की सुविधा और यदि आवास न लें तो घर का भत्ता माननीयों को मिलता है।

वहीं सरकार की दलील है कि वेतन-भत्तों में यह 24 फीसदी की वृद्धि लागत मुद्रास्फीति सूचकांक के आधार पर ही की गई है। दरअसल, सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में सांसदों के वेतन और भत्तों की हर पांच साल में समीक्षा करने का जो नियम बनाया था, उसका निर्धारण समय की महंगाई दर के आधार पर किया जाना था। निस्संदेह, लोकतंत्र के नीति-नियंताओं का जीवन विशिष्ट सुविधाओं का आकांक्षी होता है। वहीं सुख-सुविधाओं में वृद्धि तार्किकता की भी मांग करती है। यह नैसर्गिक न्याय ही होगा, यदि राजा और प्रजा के जीवन में समृद्धि की बयार समान रूप से होती है। इसमें अधिक अंतर भी न हो। किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिये के नारे का यथार्थ में फलीभूत होना भी जरूरी है। अभिजात्य संस्कृति की तार्किकता लोकतंत्र की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रश्न आयकरदाता के धन के सदुपयोग व उसकी उत्पादकता का भी है। जिसके जरिये ‍विसंगतियां दूर करने व असमानता की खाई पाटने की तार्किकता भी शामिल है। हम यह न भूलें कि महंगाई का दंश देश की आम प्रजा भी भुगत रही है। नीति-नियंताओं को उसके कष्ट दूर करने के लिये संवेदनशील ढंग से सोचना चाहिए। आम लोगों को सामाजिक सुरक्षा का कवच देने के मुद्दे को भी प्राथमिक बनाया जाना चाहिए। करोड़ों लोगों को सस्ती व गुणवत्ता की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराना भी हमारी प्राथमिकता बननी चाहिए। यह भी यक्ष प्रश्न कि देश की आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी हमें अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने को क्यों बाध्य होना पड़ रहा है। सार्वजनिक विमर्श में यह मुद्दा भी अकसर उठता रहा है कि जिस व्यवस्था की जनप्रतिनिधि संस्थाओं में करोड़पति जनप्रतिनिधियों का वर्चस्व हो, उनके लिये वेतन, भत्ते और पेंशन की तार्किकता क्या है? वहीं दूसरी ओर राजनीतिक विमर्श में नई-पुरानी पेंशन की आकांक्षा में चिंतित जनमानस को देशव्यापी एकरूपता के साथ विकल्प दिये जाने की भी जरूरत है। ताकि तेजी से उम्रदराज लोगों का देश होते भारत में करोड़ों लोगों का बुढ़ापा सुखमय हो सके। ताकि सुख, समृद्धि व सुकून राजा के घर भी हो और प्रजा के भी।

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