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आधी-अधूरी खुशी

सुखमय वातावरण बनाना सरकारी जिम्मेदारी
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हाल में जारी ‘हैप्पीनैस इंडेक्स’ में भारत की स्थिति में कुछ सुधार की बात तो जरूर सामने आयी है,लेकिन हमारी खुशी के सूचकांक को यूक्रेन, फिलीस्तीन, नेपाल व पाक से पीछे बताना गले नहीं उतरता। खुशी के मानक निर्धारण के जो पैमाने पश्चिमी देशों द्वारा इस्तेमाल किये जाते हैं, उनकी विश्वसनीयता व तार्किकता को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। निस्संदेह, हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। हमारी प्रगति की राह पर सदियों की गुलामी के दंश अभी पूरी तरह मिटे नहीं हैं। निस्संदेह, देश में गरीबी है, बेरोजगारी बढ़ी है, महंगाई है, सामाजिक सुरक्षा में पर्याप्त प्रगति नहीं हुई है। लेकिन तबाह हो चुका फिलीस्तीन, युद्ध में बर्बाद यूक्रेन व दुनिया में मदद मांगता फिरता पाकिस्तान खुशी के मामले में हम से आगे नहीं हो सकते। भले ही देश में आर्थिक विषमता हो, पूंजी का केंद्रीयकरण चंद हाथों में हो, लेकिन इसके बावजूद हम दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। हम दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती आर्थिकी हैं। लेकिन इसके बावजूद दर्शाए खुशी के सूचकांक सरकारों को आईना दिखाते हैं कि हर नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो, उन्हें सुरक्षित वातावरण उपलब्ध हो, सामाजिक सुरक्षा मिले, काम के अवसर मिलें। मंथन हो कि हमारी रीति-नीतियों में कहां खोट रह गयी कि हम कथित खुशी के सूचकांक में गरीब मुल्कों के पीछे दर्शाए जा रहे हैं। हर राष्ट्रवादी व्यक्ति को ये बात चुभती है कि उसका देश खुशी के मानकों में पिछड़े देशों से भी क्यों पिछड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि फिनलैंड को दुनिया का सबसे खुश देश बताया जा रहा है। इसी कड़ी में डेनमार्क व स्वीडन भी हैं। ये विकसित देश भारत के एक शहर जितनी आबादी वाले देश हैं। इनके यहां साक्षरता दर ऊंची है व समृद्ध संसाधन उपलब्ध हैं। कहते भी हैं छोटा परिवार सुखी परिवार होता है। हमारे देश में प्रांतीय, जातीय व धार्मिक अस्मिता के नाम पर जनसंख्या बढ़ाने की दलीलें दी जा रही हैं। दुहाई दी जाती है कि हमारा धर्म इजाजत नहीं देता कि परिवार नियोजन अपनाया जाए। संसाधन सीमित हैं और खाने वाले मुंह लगातार बढ़ते जा रहे हैं। फिर भी शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार एक हकीकत है, जिसको लेकर तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आंकड़े समय-समय पर आते रहते हैं। भ्रष्टाचार का मतलब है कि किसी के वाजिब हक का मारा जाना। शिक्षा,स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में हम यदि पिछड़े हैं तो कहीं न कहीं ये हमारे नीति-नियंताओं की विफलता भी है। यह हमारे लोकतंत्र की भी विडंबना है कि मतदान का अधिकार रखने वाले चुनाव के दौरान योग्य प्रतिनिधियों के चयन से चूकते हैं। यही वजह कि जनप्रतिनिधि संस्थाओं में दागदार नुमाइंदों की उपस्थिति बढ़ती जा रही है। जब ऐसे तत्व हमारे भाग्य-विधाता बनेंगे तो खुशी कहां से आएगी? स्पष्ट है कि यदि हम खुशी के मानकों में खरे नहीं उतरे हैं तो नीतियां बनाने वालों को आत्ममंथन करना होगा। जागरूक नागरिक व जिम्मेदार राजनीतिक नेतृत्व तसवीर बदल सकता है।

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