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आधी-अधूरी शिक्षा

वंचित वर्ग में डिजिटल डिवाइड की चुनौती

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विकास और प्रगति के तमाम दावों के बीच यदि देश के करीब आधे स्कूल कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा से वंचित हों, स्कूल बढ़ रहे हों और दाखिले कम हो रहे हों, साथ ही विद्यार्थियों का बीच में पढ़ाई छोड़ने का आंकड़ा बढ़ रहा हो, तो इसे एक बड़ी चुनौती माना जाना चाहिए। निस्संदेह, आर्थिक विकास हमारी प्राथमिकता होता है, लेकिन यदि बुनियादी शिक्षा तमाम विसंगतियों से जूझ रही हो तो विकास की सार्थकता पर सवाल उठेंगे। सवाल खासकर वंचित समाज के बच्चों का है, जिनका बड़ा संघर्ष जीवन-यापन की प्राथमिकताओं से जुड़ा है। स्वतंत्र भारत में शैक्षिक सुधार के जो प्रयास हुए,उनका लाभ वंचित समाज को काफी अधिक हुआ है। दरअसल, सरकारी स्कूल समाज के कमजोर वर्ग की आशा के केंद्र रहे हैं। यदि आज इन समाजों के बच्चे ही शिक्षा से दूर हो रहे हैं, तो तंत्र की जवाबदेही तय होनी चाहिए। आज भी लाखों बच्चे शिक्षा पाने से वंचित हैं। हाल ही में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली की रिपोर्ट में जो आंकड़े सामने आए हैं, वे खासे चौंकाने वाले हैं। समीक्ष्य वर्ष 2023-24 की रिपोर्ट बताती है कि इससे पहले साल के मुकाबले स्कूल में दाखिलों में 37.5 लाख की कमी आई है। जहां वर्ष 2022-23 में स्कूलों में 25.17 करोड़ विद्यार्थी दर्ज थे, वहीं 2023-24 में यह संख्या घटकर 24.80 करोड़ हो गई है। यह आंकड़ा प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूल स्तर का है। वहीं समीक्ष्य अवधि में बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। जिनमें छात्राएं, वंचित व कमजोर वर्ग के बच्चे अधिक हैं। ऐसे में मंथन की जरूरत है कि शिक्षा को बढ़ावा देने के तमाम प्रयासों, नई शिक्षा नीति लागू होने, अधिक स्कूल खुलने के बावजूद छात्रों के दाखिले में कमी क्यों आ रही है। सरकार की घोषणाओं और जमीनी हकीकत के अंतर को संबोधित करने की जरूरत है। ताकि नये दाखिलों को प्रोत्साहन मिले और छात्र भी बीच में स्कूल न छोड़ें।

दरअसल, जरूरत इस बात की भी कि जहां एक ओर स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता बनी रहे, वहीं स्कूलों में दाखिले को लेकर छात्रों का आकर्षण भी बना रहना चाहिए। साथ ही शिक्षा को व्यावहारिक बनाने और समय के साथ कदमताल करने की जरूरत है। वहीं दूसरी शिक्षा मंत्रालय के प्लेटफॉर्म, यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट के यह तथ्य चिंता बढ़ाने वाले हैं कि अभी तक कुल 57 फीसदी स्कूलों में ही कंप्यूटर की सुविधा मौजूद है। वहीं दूसरी ओर 53 फीसदी स्कूलों में ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। ऐसे दौर में जब ऑनलाइन पढ़ाई का खासा जोर है तो ये बच्चे भविष्य में निजी स्कूलों के छात्रों से कैसे मुकाबला कर पाएंगे? प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उनका क्या भविष्य होगा? विडंबना यह है कि वंचित समाज व कमजोर वर्ग के परिवारों में बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे भी हैं, जिनके पास न तो कंप्यूटर है और न ही स्मार्ट फोन। दरअसल, उनके परिवारों के जीवन यापन का संघर्ष इतना बड़ा है कि कंप्यूटर व स्मार्ट फोन उनकी प्राथमिकता नहीं बन सकते। चिंता की बात यह है कि निम्न मध्यवर्गीय लोग तो निजी स्कूलों की ओर तेजी से रुख कर रहे हैं, लेकिन कमजोर वर्ग के विद्यार्थी कहां जाएंगे? दरअसल, मौजूदा दौर में सिर्फ साक्षरता से खुश नहीं हुआ जा सकता, जरूरत गुणवत्ता की शिक्षा की भी है। ताकि स्कूल से निकलकर विद्यार्थी देश-दुनिया के साथ कदमताल कर सकें। मंथन इस बात को लेकर भी होना चाहिए कि क्यों लाखों बच्चे स्कूलों की दहलीज तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। आखिर क्यों छात्र स्कूल में दाखिला लेने के बाद पढ़ाई बीच में छोड़कर जा रहे हैं? शिक्षा का अधिकार तभी सार्थक होगा जब सामाजिक विसंगतियां दूर होंगी। यहां सवाल स्कूलों में शिक्षकों व छात्रों के अनुपात का भी है। यह ठीक है कि स्कूलों के भवनों के स्तर में सुधार हुआ है, स्कूलों में बिजली, पानी व जेंडर अनुकूल शौचालय बने हैं। लेकिन हमारी प्राथमिकता केवल स्कूलों में संरचनात्मक विकास ही नहीं होना चाहिए, बल्कि शैक्षिक वातावरण भी बच्चों की पढ़ाई के अनुकूल होना चाहिए।

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