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भगवान भरोसे स्कूल

शिक्षण संस्थानों में दस लाख पद खाली
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यह देश की विडंबना ही कही जाएगी कि शिक्षा व्यवस्था को लेकर सरकारें कामचलाऊ नीतियों के भरोसे ही रहती हैं। एक तरफ देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में दस लाख स्वीकृत पद खाली पड़े हैं, वहीं देश में अथाह बेरोजगारी बनी हुई है। निस्संदेह, बच्चों की प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा उच्च शिक्षा की बुनियाद होती है, यदि बुनियाद ही कमजोर होगी तो राष्ट्र की इमारत कैसे मजबूत होगी? हाल ही में संसद की शिक्षा, महिला, बाल और खेल मामलों की स्थायी समिति ने खुलासा किया कि देश के शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों के दस लाख पद खाली हैं। विडंबना यह है कि पांच साल पहले भी शिक्षामंत्री ने देश में दस लाख साठ हजार शिक्षकों के पद रिक्त होने की बात कही थी। यह भी जानकारी सामने आयी है कि वर्ष 2019 से इन पदों पर भर्ती हुई ही नहीं है। यानी आधे दशक में हम इस दिशा में कुछ भी करने में नाकाम रहे हैं। विडंबना यह है कि पिछले साल आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि देश में एक लाख ऐसे प्राथमिक विद्यालय हैं जहां एक ही शिक्षक नियुक्त है। सोचा जा सकता है कि एक शिक्षक कैसे सभी कक्षाओं के बच्चों को सारे विषय पढ़ाता होगा? विसंगति यह भी है कि इतने शिक्षकों की कमी के बावजूद सेवारत शिक्षकों को विभिन्न सरकारी अभियानों का जिम्मा भी दिया जाता है। जिसका खमियाजा छात्र की भुगतते हैं। आखिर हम अपनी प्राथमिक शिक्षा की ये कैसी बुनियाद रख रहे हैं?

चिंताजनक स्थिति यह है कि सरकारी स्कूलों को समय की जरूरत के हिसाब से पर्याप्त बजट नहीं मिल पाता। स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं का नितांत अभाव रहता है। कोरोना संकट ने सरकारी शिक्षण व्यवस्था की पोल खोली थी कि गिने-चुने स्कूलों में ही कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी। एक ओर देश के निजी स्कूलों में एआई और आधुनिक शिक्षण तकनीकों से ज्ञान दिया जा रहा है, वहीं सरकारी स्कूल शिक्षकों के लिये भी तरस रहे हैं। इन स्कूलों के पाठ्यक्रमों को समय की चाल में नहीं ढाला जा सका है। वहीं कौशल विकास की शिक्षा देना तो दूर की कौड़ी है। आखिर हम सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं का कैसा भविष्य बना रहे हैं? क्या वे स्कूल-कालेजों से निकलकर वैश्विक चुनौतियों के साथ कदमताल कर पाएंगे? हम अपने छात्रों को वह आधुनिक ज्ञान नहीं दे पा रहे हैं जो आगे चलकर उन्हें बेहतर जीवनयापन के अवसर दे सके। सही मायनों में हम सरकारी स्कूलों के नाम पर बीमार भविष्य के कारखाने चला रहे हैं। जो कालांतर छोटी-मोटी नौकरी ही पा सकते हैं या फिर बेरोजगारी की अंतहीन शृंखला में खड़े हो जाते हैं। वहीं सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम को भी समय की जरूरत के हिसाब से नहीं ढाला जा रहा है। उलटे पाठ्यक्रमों को राजनीतिक दलों की विचारधारा के हिसाब से ढालने का उपक्रम लगातार किया जाता रहा है। निश्चय ही ये स्थितियां इन बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ ही कही जाएंगी। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि हम भारत का कैसा भविष्य तैयार कर रहे हैं।

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