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मुफ्त का चंदन

रेवड़ी का धंधा विकास करेगा मंदा
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यह विडंबना है कि आजादी की हीरक जयंती मना चुके देश में मतदाता को हम इतना जागरूक नहीं बना पाए कि वो अपने विवेक से मतदान कर सके। निस्संदेह, यदि देश में गरीबी और आर्थिक असमानता है तो हमारे नीति-नियंताओं की विफलता ही है। लेकिन हम में कम से कम इतना राष्ट्र प्रेम तो होना चाहिए कि निहित स्वार्थों के लिये हम राष्ट्रीय हितों की बलि न चढ़ाएं। दिल्ली के चुनाव में मुफ्त-मुफ्त का जो खेल विधानसभा चुनाव प्रक्रिया के दौरान चल रहा है, उसके जनक विभिन्न राज्यों में कई राजनेता भी रहे हैं। लेकिन फिलहाल दिल्ली में केजरीवाल की चर्चा ज्यादा है। वे नित नये राजनीतिक प्रलोभन देकर मतदाताओं को अपने पाले में लाने के प्रयास में जुटे हैं। विडंबना यह है कि कुछ समय पहले तक भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी मुफ्त की रेवड़ियां बांटने को राष्ट्रीय हितों के लिये घातक बताता था, वही भाजपा केजरीवाल को उसी की मुफ्त वाली नीतियों से मात देने के लिये चुनावी मैदान में उतरी है। दरअसल पिछले आम चुनाव में चार सौ पार के अरमानों को झटका लगने के बाद भाजपा भी मुफ्त के खेल में उलझ गई है। दौड़ में अब कांग्रेस भी उतर गई है। विडंबना यह है कि जो पैसा दीर्घकालिक विकास कार्यों में लगाया जाना चाहिए था, वह मुफ्त के फेर में फंस गया है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जिस भी महकमे ने मुफ्त में सेवाएं देनी शुरू की, उसका भट्ठा ही बैठा है। अब चाहे मुफ्त की बिजली हो, पानी हो या फिर बस सेवा। कमोबेश, यही हाल भारतीय रेलवे का भी है, जो राजनेताओं के किराये बढ़ाने के विरोध के बाद खुद को संभाल नहीं पा रही है। बड़ा तंत्र होने के बावजूद उसके सुरक्षातंत्र को मजबूत बनाने के लिये पर्याप्त लाभ नहीं कमाया जा सका। विडंबना यह भी है कि तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और दूरदर्शी राजनेताओं के अभाव में विकास की रोशनी हर घर तक नहीं पहुंची। लेकिन इसका समाधान मुफ्त के खेल में कदापि नहीं है।

निस्संदेह, मुफ्त की नीति लोगों को अकर्मण्य बनाती है। जरूरी था कि लोगों को इतना सक्षम बनाया जाता कि उन्हें स्थायी रोजगार का अवसर मिलता। फिर उन्हें मुफ्त मांगने की जरूरत ही नहीं होती। विडंबना यह है कि हमारे परिवार-समाज की धुरी मानी जाने वाली महिलाओं को प्रलोभन देने का खेल राष्ट्रीय स्तर पर शुरू हो गया है। पहले ये शुरुआत मध्यप्रदेश से हुई। फिर महाराष्ट्र में बहनों के लिये आर्थिक प्रोत्साहन राशि गेम चेंजर साबित हुई। अब वही कवायद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में देखी जा रही है। दिल्ली की आप सरकार ने पहले मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना के तहत एक हजार रुपये की राशि पात्र महिलाओं को बांटी। अबकी बार आप ने यह राशि बढ़ाकर 2,100 करने की घोषणा की है। इसी तर्ज पर भाजपा महिला समृद्धि योजना लेकर आई है, जिसके तहत पात्र महिलाओं को 2,500 रुपये सत्ता में आने पर दिये जाने का वायदा है। इस मुफ्त के खेल में अब कांग्रेस भी उतर गई है, जिसने सभी पात्र महिलाओं को 2,500 मासिक देने की घोषणा की है। भाजपा व कांग्रेस को लगता है कि आप की मुफ्त की राजनीति को मुफ्त के दांव से ही शिकस्त दी जा सकती है। निस्संदेह, हमारी आधी दुनिया की अर्थव्यवस्था में वह भूमिका तय नहीं हो पायी, जो 21वीं सदी में होनी चाहिए थी। हमारे वंचित समाज की महिलाओं को आर्थिक आजादी दिया जाना तार्किक पहल है। लेकिन उन्हें स्वावलंबी बनाने की जरूरत है न कि याचक के रूप में मुफ्त की आर्थिक सहायता देने की। इससे न केवल सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता है बल्कि मुफ्त की लत भी बढ़ती है। अर्थशास्त्रियों की राय से सहमत हुआ जा सकता है कि प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद राजकोषीय स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है। जो कालांतर दीर्घकालीन विकास के लिये घातक साबित हो सकता है। निश्चित रूप से भारत के चुनाव आयोग को इस गंभीर मुद्दे पर पहल कर चुनावी प्रक्रिया की शुचिता को बनाने और राजकोषीय स्वास्थ्य की रक्षा की दिशा में पहल करनी चाहिए। सही मायनो में मुफ्तखोरी की संस्कृति भारतीय लोकतंत्र का मजाक ही है।

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