भारत में वर्षा ऋतु की राहत-आफत के बाद पर्व-त्योहार और प्रेरक आयोजनों की जो शृंखला शुरू होती है, वह पूरे समाज को ऊर्जावान बना जाती है। जिन जुमलों के साथ आज राजनेता चमकने की कवायद करते हैं, उनके निहितार्थ पहले से ही हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में विद्यमान हैं। कन्या-पूजन की परंपरा में स्वत: ही ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ से आगे जाकर, उसे गरिमामय स्थान देने की प्रेरणा नवरात्र में गहरे संदेश के साथ निहित है। रामलीलाओं में उदात्त पारिवारिक मूल्यों की स्थापना का संदेश है। लंकादहन इस बात का निष्कर्ष है कि भोग-विलासिता के साधन क्षणभंगुर हैं। रावण का ऊंचे कद का पुतला स्वाह होने से पहले संदेश दे जाता है कि बुराई का अंत निश्चित है। यह बात अलग है कि हमने इन पर्वों का मर्म समझने के बजाय इन्हें महज प्रतीकों तक सीमित कर दिया है। यही वजह है कि देश में हर साल लाखों रावण दहन के बावजूद समाज में रावण संस्कृति के अवशेष फलते-फूलते जाते हैं। अगले साल फिर सबसे ऊंचा रावण बनाने की होड़ रहती है। वैसे रावण के व्यक्तित्व के नकारात्मक व सकारात्मक, दोनों ही पक्ष भारी हैं। हाल के वर्षों में कई संगठन और जातीय समूह देश में खड़े हुए हैं जो उसे प्रकांड विद्वान और जीवटता का धनी बताते हैं। बहरहाल, भारतीय समाज में रावण को व्यक्ति के बजाय नकारात्मक प्रवृत्ति के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है। कहा जाता है कि रावण, दहन के वक्त अट्टहास करता नजर आता है। दहन के वक्त पटाखों की रोशनी में उसके दांत चमकते दिखते हैं, जैसे वह हंस रहा हो कि मैं मरा कहां हूं। मैं तो लाखों छोटे-छोटे रावणों के रूप में समाज में विद्यमान हूं। जैसे कह रहा हो कि त्रेता युग में भगवान शिव से मिला अमरता का वरदान व्यर्थ नहीं गया है। वह कलियुग में फलीभूत हो गया है। वह तमाम नकारात्मक प्रवृत्तियों के रूप में समाज में विद्यमान है।
आज हर सुबह मीडिया में तैरती तमाम नकारात्मकता व मानवता के खिलाफ हिंसा की खबरें सुर्खियां बनी होती हैं। आसुरी सोच न मरती है और न ही जलती है, बल्कि साल-दर-साल और ताकतवर होकर हमारे भीतर विराजमान हो जाती है। शायद इसी वजह से हर साल जलते वक्त रावण अट्टहास करता प्रतीत होता है। दरअसल, दशहरे पर पुतलों के दहन का प्रतीकात्मक महत्व है। इस अवसर पर लगने वाले मेले लोक संस्कृति के प्रतीक हैं। ये जीवन की एकरसता तोड़ने का उपक्रम हैं। हमारे छोटे-छोटे दुकानदारों, पुतले बनाने वाले कारीगरों तथा अन्य लाखों लोगों के अंशकालिक रोजगार का जरिया भी हैं। इन पुतलों को बनाने वाले लाखों कारीगरों की सालभर की कमाई इस आयोजन से होती है। रावण के साथ मेघनाद व कुंभकरण के पुतले भी जलाए जाते हैं। मेघनाद दंभ व अहंकार का प्रतीक है, तो पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छह माह तक सोने वाला कुंभकरण आलस्य व प्रमाद का प्रतीक है। इन पुतलों का संदेश है कि ऐसे पुत्र व भाई भी विनाश के कारक बन सकते हैं। बहरहाल, इन पुतलों का दहन हमें आत्ममंथन को बाध्य करता है कि क्या हम आज तेजी से आसुरी प्रवृत्तियों से ग्रसित नहीं होते जा रहे हैं? अहंकार, ईगो के रूप में ताकत का प्रदर्शन, असहनशीलता, घृणा से प्रतिकार, बदले की हिंसा, आर्थिक व राजनीतिक ताकत से कमजोर को दबाने जैसी आसुरी प्रवृत्तियों वाले छोटे-छोटे रावण क्या हमारे चारों ओर विद्यमान नहीं हैं? शक के आधार पर किसी को मारना, कानून को अपने हाथ में लेना, खून के रिश्तों का कत्ल, जीवन भर साथ निभाने वाले रिश्तों में छल, असहनशीलता और बदलाखोरी—इनमें रावणी प्रवृत्तियों का ही तो वास है। सचमुच, आज के दौर में रावण बनना आसान है और राम जैसा बनना असंभव लगता है। दरअसल, रावण न मारने से मरता है और न ही जलाने से जलता है। जब तक हम समाज में एकजुट नहीं होते, आसुरी प्रवृत्तियों के खिलाफ खड़े नहीं होते, वह छोटे-छोटे दानवों में बना रहेगा। समाज में दानवी प्रवृत्तियां तब तक अंधेरे का साम्राज्य स्थापित करने की कोशिशों में लगी रहेंगी, जब तक समाज उठ खड़ा होकर उनका प्रतिकार नहीं करता।