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सेहत का पर्व

अध्यात्म संग मानसिक-शारीरिक कल्याण
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जब कहा जाता है कि भारत पर्व व त्योहारों का देश है, तो उसकी ठोस वजह है। जब मौसम व प्रकृति अपना रूप बदल रहे होते हैं तो इनके संधिकाल पर ये पर्व-त्योहार दस्तक देते हैं। हमें सचेत कर रहे होते हैं कि बदलते मौसम के अनुरूप अपना खान-पान, रहन-सहन और विचार-वाणी बदलिए। अध्यात्म हमें वास्तव में मानवीय बनने की प्रेरणा देता है ताकि हम आत्मकेंद्रित होने के बजाय प्रकृति, समाज, कुदरत की रचनाओं, वंचितों व जरूरतमंदों की भी फिक्र करें। शिवमय हुए देश में पर्व के मर्म को महसूस किया जा सकता है। सूर्योदय के साथ दैनिक कर्मों से निवृत्त लोग आस्थास्थलों की तरफ उमड़ते देखे जाते हैं। सूर्य के उगने से पहले उठना अपने आप में सेहत की कुंजी है। शिवालयों में श्रद्धालुओं की लंबी-लंबी कतारें हममें धैर्य भर देती हैं, जो बताता है कि यदि हम नियम व कायदे के अनुरूप अपनी आस्था की अभिव्यक्ति करें तो तीर्थस्थल भगदड़ की त्रासदियों से सदा-सदा के लिए मुक्त हो सकते हैं। दरअसल, चाहे हमारे तीर्थ हों या देवालय, हमारे पूर्वजों ने उन्हें प्रकृति की सुषमा और जल स्रोतों के करीब बनाया है। जहां हम दैनिक जीवन की एकरसता से मुक्त होकर प्रकृति के सान्निध्य में सुकून महसूस कर सकें। हमारे बड़े तीर्थों के दुर्गम व पहाड़ी इलाकों में स्थित होने का अर्थ भी यही है कि हम शरीर को गतिशील बनाएं। हम पसीना बहाएं, जो अपने साथ शरीर के विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालकर हमें स्वस्थ बनाता है। सही मायनों में हमारे पर्व-त्योहार समाज के लिए सेफ्टी-वॉल का काम ही करते हैं, भागमभाग के तनाव से मुक्त करते हैं। दफ्तर-परिवार में ऊंच-नीच से उपजी असहज स्थितियों से मुक्त होने का अवसर ये पर्व देते हैं। दरअसल, समय के साथ जीवनशैली में आए बदलावों संग न केवल हमारा व्यवहार कृत्रिम हुआ है बल्कि हमारा खानपान भी अपना मूल स्वरूप खो चुका है। ऐसे में ये पर्व हमें जीवन की वास्तविकता से रूबरू कराते हैं।

कहने को तो हमारे पर्व-त्योहार आस्था व आध्यात्मिक व्यवहार से जुड़े हैं, लेकिन सही मायनों में वे हमारे स्वास्थ्य का संवर्धन कर रहे होते हैं। शिवरात्रि के व्रत में हम बेर आदि उन फलों का सेवन करते हैं, जो बदलते मौसम में हमारी शरीर की जरूरतों को पूरा करते हैं। तमाम लोग मंदिरों के बाहर दूध व फल आदि के लंगर लगाते हैं; जिससे दान देने वाले तो सेवाभाव से अभिभूत होते ही हैं, साथ ही श्रद्धालुओं के साथ ही तमाम गरीबों, जरूरतमंदों व भूखों को भी इससे लाभ मिलता है। ये पर्व हमारी आर्थिकी के लिए भी उत्प्रेरक तत्व हैं। फलों व पर्व से जुड़े सामान की बिक्री खूब होती है। उन लाखों लोगों को आर्थिक लाभ व रोजगार मिलता है, जो धार्मिक स्थलों के बाहर सड़कों पर दुकान लगा रहे होते हैं। इन धार्मिक स्थलों में पहुंचे श्रद्धालुओं में आस्था के चलते सहजता, सरलता, परोपकार आदि मानवीय गुणों की अभिव्यक्ति होती है। जो हममें सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। मंदिर व पूजा-पाठ से जीविका चलाने वालों की आर्थिकी इन पर्वों से समृद्ध होती है। वहीं पर्व-व्रत के धार्मिक-आध्यात्मिक पक्ष के इतर समाज-कल्याण व सेहत से जुड़ा पक्ष भी सशक्त है। सबसे महत्वपूर्ण तो व्रत है। व्रत का एक संपूर्ण विज्ञान है। विडंबना यह है कि हम अपने आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा जैसे सर्वसिद्ध ज्ञान को गंभीरता से नहीं लेते। हाल ही के दिनों में विकसित देशों ने तमाम शोधों के बाद व्रत को दवा की संज्ञा दी है। प्राकृतिक चिकित्सा में व्रत के प्रकार, उसे खोलने में सावधानी व उपचार में उपयोग को लेकर विस्तृत अध्ययन उपलब्ध है, जो बताता है कम खाने से हमारा शरीर का पाचनतंत्र बेहतर ढंग से काम करता है। हम अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ महसूस करते हैं। लेकिन व्रत वाले दिन हम तमाम ऐसे विकल्प तलाश लेते हैं जो सामान्य दिनों के खाने से ज्यादा होता है। सही मायनों में व्रत विशुद्ध शारीरिक स्वास्थ्य की एक स्वयंसिद्ध प्रक्रिया है। हमारे पूर्वजों ने इस धर्म और अध्यात्म से जुड़कर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि सनातनी सदियों तक व्रत और परंपराओं का पालन करते हुए शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकें।

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