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फर्जी विश्वविद्यालय

मान्यता देने से पहले की जाए पड़ताल

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यह हमारे तंत्र की विफलता ही कही जायेगी कि देश में युवाओं की जरूरत के अनुरूप विश्वविद्यालयों का अभाव ही रहा है। जो सरकारी विश्वविद्यालय व संस्थान देश में मौजूद हैं भी, वे समय की जरूरतों के साथ कदमताल नहीं कर पा रहे हैं। यही वजह है कि सुनहरे भविष्य की आकांक्षाओं के लिये छात्र निजी विश्वविद्यालयों की ओर उन्मुख हो रहे हैं। जहां अधिक फीस के बावजूद छात्र दाखिला लेते हैं कि उनका भविष्य सुधर सके। यह विडंबना है कि देश की गाल बजाते राजनेताओं ने कभी नहीं सोचा कि दुनिया में सबसे ज्यादा युवाओं के इस देश में शिक्षा पर अपेक्षित खर्च बढ़ाने की जरूरत है। जब हम दावा करें कि ये ज्ञान की सदी है तो हमारी कोशिश भी होनी चाहिए कि हर आम छात्र के लिये ज्ञान पाने के अवसर सहज-सरल ढंग से उपलब्ध हों। क्या भारत ऐसी शिक्षा व्यवस्था के बूते विश्व गुरु बनने का सपना देख सकता है? पिछले दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने बीस फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी की है। साथ ही चेताया है कि इन विश्वविद्यालयों की डिग्री कहीं भी मान्य नहीं होगी। लेकिन सवाल यह है कि यह निर्णय लेने में इतनी देरी क्यों होती है? ये विश्वविद्यालय रातों-रात तो बन नहीं जाते। हजारों छात्र ऐसे होंगे जिन्होंने इन विश्वविद्यालयों में सालों पढ़ाई की होगी। भ्रामक विज्ञापनों व धनबल के आधार पर ऐसा माहौल तैयार किया जाता है कि यही विश्वविद्यालय सपनों का रास्ता है। क्या देश के सत्ताधीशों को नजर नहीं आता कि फलां विश्वविद्यालय कानूनी अर्हताएं पूरी नहीं करता। विडंबना देखिये कि हाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने जिन बीस विश्वविद्यालयों को जाली घोषित किया है उनमें से आठ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही हैं, जहां देश के शिक्षा से जुड़े तमाम नियामक संस्थान स्थित हैं। आखिर वहां कैसे लंबे समय से कथित फर्जी विश्वविद्यालय चल रहे थे? सवाल यह भी कि उन छात्रों की क्षतिपूर्ति कैसे होगी, जिन्होंने इन विश्वविद्यालयों से डिग्री हासिल की है?

निस्संदेह, आज शिक्षा के मंदिर व्यापार का केंद्र बन गये हैं। मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल करके तमाम ऐसे शिक्षण संस्थान देश में खुल रहे हैं। ऐसा लगता है कि देश में डीम्ड यूनिवर्सिटियों का सैलाब-सा आ गया है। विभिन्न धंधों से पैसा कमा कर नये-नये अमीर बने बहुधंधी लोग अब विश्वविद्यालय खोलकर समाज में प्रतिष्ठा हासिल करने का खेल कर रहे हैं। सीमित संसाधनों वाले लोगों के बच्चे बेहतर भविष्य की आस में इन विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं। ऐसे में इन संस्थानों को फर्जी घोषित करने के बाद इन छात्रों व इनके अभिभावकों पर क्या गुजरेगी, कल्पना करना कठिन नहीं है। ये छात्र इन डिग्रियों के आधार पर न तो आगे पढ़ सकते हैं और न ही नौकरी के लिये आवेदन कर सकते हैं। आखिर व्यवस्था की चूक का खमियाजा ये छात्र क्यों भुगतने को अभिशप्त हैं? आखिर उनके पैसे और अमूल्य समय की पूर्ति कौन करेगा? एक बार तो यूजीसी ने सौ से अधिक विश्वविद्यालयों को फर्जी घोषित किया था। लेकिन उसके बावजूद नये फर्जी विश्वविद्यालय सामने आ रहे हैं तो नियामक व निगरानी तंत्र क्या कर रहा था? क्यों हजारों छात्रों के भविष्य पर संकट के बादल मंडराने के हालात पैदा होने दिये गये? क्यों सरकारें जनभागीदारी के साथ नये सरकारी स्कूल खोलने के प्रयास नहीं करतीं ताकि हजारों छात्र फर्जी विश्वविद्यालयों की चपेट में न आएं। यदि सरकार के पास पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हैं तो उसे पत्राचार के जरिये भरोसेमंद शिक्षा को विस्तार देने के विकल्प को भी बढ़ावा देना चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चत करना चाहिए कि पत्राचार के जरिये डिग्री हासिल करने वालों के साथ नौकरियों में किसी तरह का भेदभाव न किया जाये। सत्ताधीशों को सोचना होगा कि शैक्षिक जगत में बेहतर विश्वविद्यालय न होने के कारण हर साल लाखों बच्चे क्यों विदेश में पढ़ाई के विकल्प को चुन रहे हैं। जिसमें हमें बड़ी मात्रा में अपनी बहुमूल्य विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। ये छात्र भी विदेशों में पढ़ने के बाद मुश्किल से ही भारत लौटते हैं। यह स्थिति देश के लिये अच्छी नहीं है।

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