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राधाकृष्णन से उम्मीदें

नए उपराष्ट्रपति के सामने निष्पक्षता की परीक्षा
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इसमें दो राय नहीं कि भारत के पंद्रहवें उपराष्ट्रपति के रूप में सीपी राधाकृष्णन का चुनाव विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संवैधानिक यात्रा में निरंतरता और परिवर्तन, दोनों का ही प्रतीक है। सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग के उम्मीदवार के के रूप में उन्होंने विपक्ष के साझा उम्मीदवार बी सुदर्शन रेड्डी को 152 मतों के बड़े अंतर से हराया। यह जीत राजग सरकार की विधायी शक्ति और संगठनात्मक अनुशासन को भी रेखांकित करती है। निस्संदेह, भाजपा के लिये, सीपी राधाकृष्णन का चयन एक रणनीतिक कदम ही है। तमिलनाडु के एक अनुभवी नेता, जिनकी आरएसएस में गहरी जड़ें रही हैं, ने पार्टी में महत्वपूर्ण नेतृत्वकारी भूमिकाएं भी निभाई हैं। वे पार्टी से दो बार लोकसभा के लिये सांसद चुने गए। राज्यपाल पद से उन्हें उपराष्ट्रपति पद के लिये पदोन्नत करके, एनडीए ने न केवल उनकी निष्ठा और अनुभव को पुरस्कार दिया है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में एक दक्षिण भारत के चेहरे को प्रतिष्ठा देकर अपने दूरगामी इरादों को भी जाहिर कर दिया है। जिसका एक सिरा भाजपा के दक्षिण भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने के रूप में पार्टी की एक व्यापक महत्वाकांक्षा से भी जुड़ता है। उस महत्वपूर्ण राजनीतिक क्षेत्र में जहां उसे पारंपरिक रूप से चुनावी पैठ बनाने के लिए अब भी संघर्ष करना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि सीपी राधाकृष्णन को राजग के उपराष्ट्रपति पद के लिये उम्मीदवार बनाने के निर्णय ने सबको चौंकाया था। वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह निर्णय उनकी राजनीतिक स्मृति की विरासत को भी दर्शाता है। पार्टी के उन नेताओं का सम्मान करना, जिनकी पार्टी के कठिन वर्षों के दौरान की दृढ़ता ने आज की मजबूत भाजपा के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वहीं उनका चुना जाना विपक्ष के राजग का सशक्त विकल्प बनाने के संघर्ष को भी उजागर करता है। उप राष्ट्रपति पद के चुनाव में हार का अंतर न केवल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ताकत को दर्शाता है बल्कि वहीं दूसरी ओर विपक्ष की फूट और क्राॅस-वोटिंग को भी दर्शाता है।

बहरहाल, सीपी राधाकृष्णन का उप राष्ट्रपति पद के लिये चुना जाना विपक्ष के लिये एक सबक जैसा भी है। जो उसे याद दिलाता है कि प्रतीकात्मक मुकाबले एक सुसंगत रणनीति का विकल्प नहीं हो सकते। निर्विवाद रूप से उपराष्ट्रपति का पद केवल औपचारिक व्यक्ति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। वे सांविधानिक पद सोपान में दूसरे सबसे ऊंचे पद पर तो आसीन होते ही हैं, राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में उनकी जिम्मेदारियां भी महत्वपूर्ण होती हैं। राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में उन्हें उच्च सदन में अकसर होने वाले हंगामेदार वाद-विवादों का भी शालीनतापूर्वक निपटारा करना होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके नेतृत्व में राज्यसभा की कार्यवाही अधिक समावेशी हो सकेगी और सदन में जन सरोकारों से जुड़ा अधिक कार्य हो सकेगा। उनके लिये चुनौती होगी कि वे अपनी वैचारिक संबद्धता के बावजूद, सदन की कार्यवाही के संचालन में निष्पक्षता और न्यायसंगतता का प्रदर्शन करें। यह निर्विवाद सत्य है कि संसद की विश्वसनीयता अध्यक्ष की दलीय सीमाओं से परे सम्मान अर्जित करने की क्षमता पर निर्भर करती है। ऐसे समय में जब संसदीय कार्यप्रणाली सार्वजनिक विमर्श के दायरे में है, अगर राधाकृष्णन दलगत दबावों से ऊपर उठ सकते हैं, विधायी बहस को मजबूत कर सकते हैं और राज्यसभा की गरिमा का संवर्धन करते हैं, तो उनकी विरासत दलीय निष्ठा से कहीं आगे प्रतिष्ठा हासिल करेगी। यह भी एक हकीकत है कि राधाकृष्णन ऐसे वक्त में यह पद संभालेंगे जब सरकार और विपक्ष के बीच असहमति की खाई ज्यादा गहरी नजर आती है। यही असहमति सर्वसम्मत चुनाव पर एक राय नहीं बना पायी है। आने वाले समय में उन्हें पक्ष और विपक्ष को साथ लेकर विधायी कार्यों को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। निस्संदेह, उनकी भूमिका गरिमामय संसदीय परंपराओं को अक्षुण्ण बनाये रखने में भी होगी। जिसके लिये उन्हें राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से मुक्त नजर भी आना होगा। विश्वास किया जाना चाहिए कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों और संसदीय परंपराओं की कसौटी पर खरे उतरेंगे।

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