हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई द्वारा अनुसूचित जाति आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर सिद्धांत का समर्थन करने से एक महत्वपूर्ण तार्किक चर्चा फिर से प्रारंभ हो गई है। जिसका मकसद है कि कैसे सकारात्मक पहल करके आरक्षण के उद्देश्य को अधिक न्यायसंगत, लक्षित और प्रभावी बनाया जा सकता है। वास्तव में उनकी पहल का मकसद संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर करने का नहीं है। बल्कि यह सुनिश्चित करने का प्रयास है कि आरक्षण का लाभ उन लोगों तक पहुंचे, जिन्हें वास्तव में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। यानी कि अनुसूचित जाति समुदाय के सबसे गरीब, सामाजिक रूप से सबसे अधिक वंचित और आरक्षण के लाभ में सबसे कम प्रतिनिधित्व करने वाले वर्ग को लाभ पहुंचाने का मकसद पूरा करना। बहुत संभव है कि मुख्य न्यायाधीश के इस विचार से असहमति के तर्क दिये जाएं। वास्तव में, देश में दशकों से आरक्षण की बहस कोटा बढ़ाने पर केंद्रित रही है, लेकिन उनके न्यायसंगत वितरण की दिशा में पर्याप्त पहल नहीं हो पायी है। निर्विवाद रूप से अनुसूचित जाति समुदाय के एक छोटे, अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक-सामाजिक स्थिति वाले वर्ग ने ही बार-बार शिक्षा और सरकारी रोजगार के अवसरों का लाभ उठाया है। वहीं दूसरी ओर पीढ़ी दर पीढ़ी अभावों के भंवर-जाल में फंसे परिवार- मसलन श्रमिक, सफाई कर्मचारी, भूमिहीन मजदूर परिवार लगातार हाशिये पर ही बने हुए हैं। यदि आरक्षण का मूल उद्देश्य संरचनात्मक असंतुलन को ही ठीक करना है तो इसके लाभ सीमित दायरे के लोगों को ही नहीं मिलना चाहिए। उल्लेखनीय है कि ओबीसी वर्ग के लिये यह प्रावधान सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका है। इसमें दो राय नहीं कि क्रीमी लेयर का सिद्धांत आरक्षण लाभ में इस तरह के एकाधिकार को रोकने का एक सशक्त साधन है। इस प्रावधान का वंचित अनुसूचित जातियों तक विस्तार करना एक बुनियादी सच्चाई को स्वीकार करता है कि सामाजिक गतिशीलता, हालांकि सीमित स्तर पर कुछ ही लोगों के लिये संभव हुई है। साथ ही अवसरों के अधिक न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करने के लिये नीति को अनुकूलित किया जाना वक्त की जरूरत है।
वास्तव में वर्तमान स्थिति आरक्षण के न्यायसंगत लाभ वंचित वर्ग तक पहुंचाने में तार्किक नजर नहीं आती। जब किसी आईएएस अधिकारी या वरिष्ठ अधिकारी का बच्चा सामाजिक रूप से हाशिये पर गए वर्ग के किसी व्यक्ति के मुकाबले समान लाभों का दावा करना जारी रखता है तो इससे लक्षित उद्देश्य कमजोर हो जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि क्रीमी लेयर को बाहर करने पर उनके जातिगत भेदभाव होने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह केवल यही दर्शाता है कि किसी भी ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समूह के भीतर, वंचितता की स्थिति अलग-अलग होती है। ऐसी अवस्था में, सबसे निचले स्तर के लोग राज्य के संरक्षण पाने के लिये प्राथमिकता के हकदार हैं। निश्चित रूप से स्पष्ट मानदंड, सामाजिक पिछड़ेपन का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने और दुरुपयोग को रोकने के लिये कारगर सुरक्षा उपाय होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की टिप्पणी इस बात की ही परिचायक है कि सामाजिक न्याय का विस्तार होना चाहिए। अनुसूचित जातियों के आरक्षण से क्रीमी लेयर को सोच-समझकर बाहर करने से समानता के संवैधानिक वायदे की पुष्टि हो सकती है। इस पहल के विरोध में यह तर्क दिया जा सकता है यदि अनुसूचित जाति वर्ग के आरक्षण के उपवर्गीकरण को मान्यता दी जाती है, तो पहले इससे लाभान्वित लोगों को सुरक्षा कवच न मिल सकेगा। उनका तर्क हो सकता है कि कई बार आरक्षित वर्ग के किसी व्यक्ति को उच्च पद पर पहुंच जाने के बावजूद किसी भेदभाव व उपेक्षा का सामना करना पड़ सकता है। निस्संदेह, इस कथन की तार्किकता विचारणीय है। लेकिन इसका एक निष्कर्ष यह भी हो सकता है कि सामाजिक विसंगति और आर्थिक विषमता दूर करने का एकमात्र साधन आरक्षण ही नहीं हो सकता है। यहां यह भी विचारणीय होना चाहिए कि कई पीढ़ियों से आरक्षण लाभ पा चुके लोग, स्वेच्छा से उसका परित्याग करें तो इस दिशा में धनात्मक वातावरण बन सकता है। निश्चित रूप से ऐसे कदमों से मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की सकारात्मक पहल को संबल मिल सकेगा।

