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खाली हाथ किसान

सद्भावपूर्ण बातचीत से निकालें समाधान
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खेती-किसानी से जुड़े विभिन्न मुद्दों को लेकर किसानों के एक घटक द्वारा तेरह माह से चलाए जा रहे आंदोलन का बलपूर्वक समापन एक अच्छी स्थिति कदापि नहीं की जा सकती। हालांकि यह भी तय था कि यह आंदोलन अनिश्चितकाल के लिये नहीं चलाया जा सकता था। लेकिन चंडीगढ़ में केंद्रीय मंत्रियों की उपस्थिति में बात न बनने के बाद पंजाब सरकार की बलपूर्वक की गई कार्रवाई से धरना स्थल को खाली करवाने व किसान नेताओं की गिरफ्तारी से किसानों में रोष स्वाभाविक ही है। निर्विवाद रूप से लंबे समय से खनौरी व शंभू बॉर्डर से जुड़े राजमार्ग के बाधित होने से यात्रियों व कारोबारियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा था। वहीं सरकार ने भी इस आधार पर अपनी कार्रवाई को तार्किक बताया है कि दो प्रमुख राजमार्गों के लंबे समय तक बंद रहने से उद्योग और व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे। निजी वाहनों को भी लंबे रास्तों से सफर तय करने में अधिक समय व पेट्रोल खर्च करना पड़ रहा था। वहीं किसान नेताओं का आरोप है कि उन्हें आंदोलन करने के उनके लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित करने का कदम दमनकारी है। जैसा कि उम्मीद थी, विपक्षी राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर बयानबाजी शुरू कर दी है। लेकिन एक बात तो तय है कि किसान संगठन व सरकारें विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने में सफल नहीं हो पाए हैं। जिसके चलते राज्य सरकार व किसान संगठनों में अविश्वास व टकराव बढ़ा है। विडंबना यह भी है कि किसान संगठनों में मांगों को लेकर खासे मतभेद हैं। यदि सभी संगठन एमएसपी के मुद्दे पर एकजुट होकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाते तो शायद कोई सार्थक समाधान निकल पाता। लेकिन इसके विपरीत किसान संगठन आपस में ही उलझते रहे। यही वजह है कि किसान संगठनों के घटते जनसमर्थन को देखते हुए राज्य सरकार ने सख्त रुख अपनाया। जबकि केंद्र सरकार भी इस मुद्दे के प्रति गंभीर नजर नहीं आयी।

जरूरी है कि केंद्र व राज्य सरकारें किसानों के मुद्दों पर किंतु-परंतु की नीति को त्यागकर समयबद्ध तरीके से कृषि संकट को दूर करने के लिये दृढ़ प्रतिबद्धता से बातचीत करें। विभिन्न मांगों पर लचीला रवैया दोनों पक्षों के लिये लाभकारी साबित हो सकता है। यह समय किसान संगठनों के लिये भी आत्ममंथन करने का है। उन्हें तीन कृषि सुधारों के विरोध में वर्ष 2020-21 में दिल्ली की सीमा पर चले लंबे किसान आंदोलन के खराब संचालन से भी सबक लेना चाहिए। हालांकि, तीन प्रस्तावित कृषि कानून अंतत: स्थगित कर दिए गए, लेकिन सैकड़ों किसानों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी। इसके बावजूद फसलों की एमएसपी हेतु कानून बनाने में विफलता ही हाथ लगी। निस्संदेह, लंबे किसान आंदोलन से पंजाब के कारोबार को दांव पर नहीं लगाया जा सकता, लेकिन ध्यान रहे कि कृषि पंजाब की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है। ऐसे में सभी को साथ लेकर सुलह-सफाई करने के लिये गंभीर प्रयासों की जरूरत है। यदि ऐसा न होने पर राज्य में अशांति बढ़ती है तो वित्तीय संकट से जूझते पंजाब को और मुश्किलों का सामना करना होगा। सरकार को भी घाटे का सौदा साबित हो रही खेती की दशा सुधारने के लिये स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की दिशा में सोचना चाहिए। वहीं कर्ज माफी की किसानों की मांग पर उदारतापूर्वक विचार करना चाहिए। जब उद्योगपतियों का कर्ज माफ किया जा सकता है तो किसानों का क्यों नहीं। वहीं किसानों को भी चाहिए कि वे कृषि ऋण गैर उत्पादक कार्यों पर न खर्च करें। किसान संगठनों को भी एक मंच पर आकर जनता का विश्वास हासिल करना चाहिए, जो हाल में लगातार कम होता गया है। इस दिशा में केंद्र सरकार से भी गंभीर पहल की दरकार है। यह मुद्दा देश की खाद्य सुरक्षा से जुड़ा है। साथ ही उन मुद्दों को भी संबोधित करने की जरूरत है जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों से पैदावार घटाने में भूमिका निभा रहे हैं। यह भी कि पंजाब में लगातार गिरता भूजल स्तर किसानों के सामने नये संकट पैदा कर रहा है। ऐसे में फसल विविधता के मुद्दे को भी संबोधित करने की जरूरत है।

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