सुबह आंख खुलते ही, एक अजीब सा अहसास हुआ। श्वांस की जो नली प्रिंटिंग की स्याही की गंध निगलने की अभ्यस्त हो चुकी थी, आज वही नली मस्तिष्क को कुछ अलग ही संदेश दे रही थी। मस्तिष्क भी तुरंत हरकत में आया। पता लगाया आखिर माजरा क्या है! गंध चखने की शौकीन इंद्रियों को विशुद्ध वातावरण आखिर रास आता भी तो कैसे!
आंखों ने तुरंत सिरहाने के अगल-बगल जांच-पड़ताल की। वातावरण प्रदूषित न होने का भेद आखिर खुल ही गया। आंखों ने मस्तिष्क को संदेश वापस भेजा, आज अखबारों के बंडल गायब हैं। मैं तो पिछले चार से अधिक दशक से बिना किसी डॉक्टर का मशविरा लिए खाली पेट को अखबारों के बंडल खोलकर ही भरता आया हूं। मैंने अपनी श्रीमती गीता को आवाज लगाई। आखिर माजरा क्या है! वह तपाक से बोली, आज पेट भरने के लिए वो सब नसीब होने वाला नहीं। जो होनी थी, वो हो ली, तो फिर भला अखबार आएंगे कैसे!
पापी पेट भरने की उधेड़बुन में मेरे माथे पर ‘होली’ के अनायास ही लगे धब्बे फीके पड़ने लगे। एक बार फिर, गीता के समक्ष आग्रहपूर्ण अर्जी लगाई – जरा चाय तो बना दो। जवाब तपाक से मिला – क्यों, आज क्या आफत आ गई! आगे भी तो बनाते हो। खुद पीते हो, मुझे भी पिलाते हो। मैंने भी बस दया की भीख-सी मांगते हुए कहा, आज ईंधन नहीं डला ना! उसने भी विकल्प पेश करने में विलम्ब नहीं किया। तुरंत टीवी का बटन दबा दिया। बोली, अखबार नहीं मिलते तो क्या हुआ, ये लो भर लो चलता-फिरता ईंधन।
अब आंखों के साथ कानों के कपाट भी खुल गए। स्क्रीन पर अवतरित एंकर मोहतरमा डिबेट के अपने स्क्रीप्टिड टॉपिक पर अडिग थी। पेनलिस्ट को अपने बिंदास विचार व्यक्त करने से रोक रही थी। मैं भी क्या करता, तकिया ‘गोदी’ में धर-दबोच, मन-मसोस कर बैठ गया। इसी बीच, एक प्लेट पर चाय के प्याले ने जोर से जम्प लगाया। आवाज भी कड़की – ये लो, फूंक लो मुंह…।
उधर, हर रोज की भांति आज पेट में ट्रैफिक का कोई शोरगुल भी नहीं था। मैं भांप गया कि पेट हल्का होने के मूड में क्यों नहीं है। भागकर स्टोर से अखबारों का पुराना बंडल उठाया। साथ में संडे का बासी मैग्जीन भी बगल में दबा लिया। फिर लगा ली, चटकनी। अरे, ये क्या! ज्यों-ज्यों खबरें पढ़ता गया, मर्ज भी बढ़ता गया, खबरें बासी जो थी। चलो! जैसे-तैसे नहाया और फिर बाहर आया।
उधर, श्रीमती ने विनम्रता से कहा कि आज तो मुई ‘सौतनें’ आई नहीं। इसलिए चलो, अपनी 10 साल से धूल फांक रही बुक-सेल्फ की ही सफाई कर लो। खबरों की विरह-वेदना में तड़पते हुए दो घंटे तक झाड़-पोंछ किया। साथ ही साथ मोबाइल के माध्यम से देश-विदेश के ताजा घटनाक्रम और सोशल मीडिया के जरिये ‘सफेद झूठ’ और ‘काले सच’ के भेद जानने का प्रयास भी किया।
अखबार न आने से वक्त नहीं कट रहा था, लग रहा था जैसे 10 बरस हो गए हों। मैं अभी किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से उबरा भी नहीं था कि गीता ने कर्मयोग का फलसफा पढ़ना शुरू कर दिया। बोलीं, होली कल थी, अब तो वह हो ली। उसके फलसफे से मुझे ऐसे लगा मानो कोई चिर-परिचित आवाज कह रही हो – नरेश, उठो, धनुष उठाओ। मेरी रगों में जम चुके सरदार दयाल सिंह मजीठिया के सिद्धांतों के थक्के मानो फिर पिघलने लगे। पत्रकारिता के मानदंड और सर्वोच्च मूल्यों का संकल्प लेते हुए मैं एक बार फिर अपने उसी कर्मक्षेत्र की ओर बढ़ चला।
(ये उद्गार दैनिक ट्रिब्यून के संपादक के हैं)