जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर नजर रखने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने यह बताकर देश की चिंताएं बढ़ा दी हैं कि भारत में ग्लोबल वार्मिंग के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से बहुत ज्यादा है। इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों के विस्थापित होने की संख्या में तेजी आई है क्योंकि निर्धन लोग लगातार आने वाली प्राकृतिक विपदाओं का दंश झेल नहीं पा रहे हैं। मौसम के मिजाज में बदलाव के कारण देश के विभिन्न भागों में प्राकृतिक आपदाओं की गति में तेजी आई है, जो अंतत: विस्थापन की वजह बनती हैं। दरअसल, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट की हालिया रिपोर्ट बताती है कि आपदाओं के चलते गरीब लोग अपनी जमीन से उखड़ रहे हैं। भारत में जलवायु परिवर्तन से जुड़े इस पहले अध्ययन की रिपोर्ट इसी सप्ताह जारी की गई, जिसमें बताया गया कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही तथा चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट से यह विस्थापन बढ़ा है। कमजोर तबका निरंतर हो रहे नुकसान को सहन नहीं कर पा रहा है। इन आपदाओं की आवृत्ति बढ़ने की आशंकाओं के बीच वह सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर रहा है। इससे पहले जर्मनी वॉच ने ग्लोबल वार्मिंग के खतरों के बाबत जो सूची जारी की थी, उसमें भारत शीर्ष दस देशों में शामिल था। भारत की इन्हीं चिंताओं को इस बात से महसूस किया जा सकता है कि दुनिया के प्रमुख देशों के नेताओं के जलवायु परिवर्तन पर 31 अक्तूबर से होने वाले ग्लासगो सम्मेलन में भाग लेने प्रधानमंत्री स्वयं जा रहे हैं, जबकि पर्यावरण मंत्री भी वहां मौजूद रहेंगे। चिंता की बात यह है कि एक अनुमान के अनुसार बीते साल भारत को प्राकृतिक आपदाओं मसलन बेमौसमी बारिश, बाढ़, सूखे व चक्रवाती तूफानों की वजह से 87 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। जाहिर है विभिन्न देशों में हो रहे इस नुकसान में जलवायु परिवर्तन की बड़ी भूमिका है। कमोबेश ऐसी ही प्राकृतिक आपदाएं इस साल अमेरिका व यूरोप के विकसित देशों ने भी महसूस की।
इन्हीं वैश्विक चिंताओं के बीच दुनिया के करीब सवा सौ देश ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के उपायों पर विचार करने को एकत्र हो रहे हैं। संकट की विभीषिका को महसूस करते हुए कॉनफ्रेंस ऑफ पार्टीज नामक सम्मेलन 13 दिन तक चलेगा, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन समेत शीर्ष नेता शामिल हो रहे हैं। सम्मेलन में पेरिस समझौते के क्रियान्वयन और आगे की रणनीति पर विचार होगा। दरअसल, पेरिस सम्मेलन में दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने हेतु वैश्विक तापमान को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने का लक्ष्य रखा गया था, जिसके लिये देशों ने अपने यहां कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लक्ष्य निर्धारित किये थे। लेकिन इससे वैश्विक लक्ष्य प्राप्त करने में ज्यादा मदद मिलती नजर नहीं आती क्योंकि यूएन के मुताबिक सदी के अंत तक दुनिया का तापमान 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। ऐसे में ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को देखते हुए सख्त कदम उठाये जाने चाहिए। अनुमान है कि ग्लासगो में दुनिया के भविष्य को बचाने के लिये वैश्विक तापमान वृद्धि दर को 1.5 निर्धारित करने की मांग उठेगी, जिसके लिये भारत समेत विकासशील देशों पर नेट-जीरो डेड लाइन निर्धारित करने का दबाव होगा। जिससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पर नियंत्रण किया जा सके। देशों को वह वर्ष बताना होगा जब उनका कार्बन उत्सर्जन शून्य होगा। दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक चीन वर्ष 2060 तथा दूसरा बड़ा कार्बन उत्सर्जक अमेरिका ने 2050 कार्बन न्यूट्रल होने की बात कही है। भारत जैसे देशों के लिये सम्मेलन चुनौती पेश करेगा क्योंकि इसमें बिजली उत्पादन में कोयले की निर्भरता खत्म करने पर बल दिया जायेगा। भारत, चीन व अमेरिका इसका सर्वाधिक उपयोग करते हैं। यूएन की अंतर सरकारी समिति ने दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिये कोयले पर निर्भरता को 2050 तक खत्म करने को कहा है। जरूरी है कि विकासशील देशों को ऊर्जा संसाधनों में कटौती के लिये विकसित देशों को पेरिस सम्मेलन में निर्धारित जलवायु वित्तीय सहायता को ईमानदारी से देना होगा।