
यह विडंबना ही है कि सत्ता की महत्वाकांक्षा के चलते सरकार बनाने-गिराने का जो खेल हाल के दशकों में राज्यों में नजर आया, उसमें राज्यपाल की भूमिका को लेकर गाहे-बगाहे सवाल उठे हैं। कहीं न इस पद की गरिमा के विपरीत राज्यपाल केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर व्यवहार करते नजर आते हैं। ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्ति हाल में ही उभरी हो, आजादी के कुछ दशकों के बाद से ही यह खेल निरंतर जारी रहा है। राज्य में विपक्षी दलों की सरकारों को गिराने के लिये इस पद का दुरुपयोग कांग्रेस से लेकर राजग सरकारों के दौर में होता रहा है। इस संकट को महसूस करते हुए ही सुप्रीम कोर्ट को महाराष्ट्र प्रकरण में तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार काे कड़ी टिप्पणी की कि सत्तारूढ़ पार्टी में असंतोष की स्थिति में राज्यपाल का बहुमत साबित करने को कहना अनुचित है। ऐसे में सत्तारूढ़ दल में यदि मतभेद होने पर बहुमत सिद्ध करने को कहा जाता है तो निर्वाचित सरकार के अस्तित्व पर संकट पैदा हो सकता है। यानी इसमें राज्यपाल की भूमिका हस्तक्षेप करने वाली नहीं होनी चाहिए। दरअसल, मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई़ चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि ऐसा किया जाता है तो यह लोकतंत्र का प्रहसन ही होगा। उल्लेखनीय है कि खंडपीठ ने यह टिप्पणी बीते साल अविभाजित शिवसेना में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुए विद्रोह के बाद राज्य में पैदा राजनीतिक संकट के बाबत की। तब भी राज्यपाल की भूमिका को लेकर विपक्ष ने कई सवाल खड़े किये थे। दरअसल, कोर्ट ने इस संकट के बाबत दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान ही यह तल्ख टिप्पणी की। उल्लेखनीय है कि राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा व शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा था। कालांतर सत्ता में बंटवारे को लेकर दोनों दल अलग हो गये थे और कम विधायकों वाली शिवसेना ने कुछ विपक्षी दलों के समर्थन से सरकार बना ली थी।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि राज्य में शिवसेना की सरकार बनने के बाद भाजपा प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से शिवसेना सरकार पर हमलावर रही है। इस काम में जहां तमाम विवादों में सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल के आरोप लगे, वहीं राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहे। केंद्र की सत्ता में होने का लाभ राज्य भाजपा को मिला। राजग के सबसे पुराने सहयोगियों में रहे शिवसेना व भाजपा में कटुता इस हद तक जा पहुंची कि बात सरकार को गिराने तक में परोक्ष भूमिका तक पहुंच गई। यह राजनीतिक विद्रूपता ही है कि किसी पार्टी के बैनर तले चुनकर आये जनप्रतिनिधि सत्ता व अन्य सुविधाओं के प्रलोभन में पाला बदलकर मूल दल के विरोधियों के साथ बगलगीर हो जाते हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार भाजपा के समर्थन से ही अस्तित्व में बनी हुई है। सही मायनों में शीर्ष अदालत ने इन्हीं राजनीतिक विद्रूपताओं की ओर इशारा करते हुए कहा है कि राज्यपाल द्वारा किसी राजनीतिक दल में असंतोष के चलते बहुमत साबित करने को कहना अपरोक्ष रूप से सरकार को अस्थिर करना ही है। कुल मिलाकर कोर्ट ने राज्यपाल की भूमिका के नैतिक पक्ष को उजागर करने के साथ ही इस पद की गरिमा को बनाये रखने का संदेश दिया है। हालांकि, महाराष्ट्र के राज्यपाल की तरफ से उपस्थित सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि कई वाजिब कारण मौजूद थे, जिसके चलते राज्यपाल ने उद्धव सरकार को सदन में बहुमत साबित करने को कहा था। इसमें शिवसेना के 34 विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र भी शामिल था। जिसमें तत्कालीन उद्धव ठाकरे नीत सरकार से समर्थन वापस लेने की बात कही गई थी। साथ ही नेता प्रतिपक्ष ने बहुमत साबित करने की मांग की थी। इन्हीं तमाम परिस्थितियों के चलते राज्यपाल ने ठाकरे को सदन में बहुमत साबित करने को कहा था। बहरहाल, इन दलीलों के बावजूद विषम परिस्थितियों में राजनीतिक शुचिता और राज्यपाल के नीर-क्षीर विवेक की दरकार तो है ही।
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