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जनता से छल

महाराष्ट्र में सत्ता सुख के लिये पैंतरेबाजी

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महाराष्ट्र में राकांपा में टूट और राजग के कुनबे का विस्तार करते हुए बागियों का सरकार में शामिल होना राजनीतिक अनिश्चितताओं के साथ नेताओं के सत्ता मोह को भी दर्शाता है। विधायकों का रातों-रात पाला बदलकर दूसरे की सरकार में शामिल होना बताता है कि सत्ता के लिये परिवार व पार्टी के कोई मायने नहीं हैं। लेकिन एक बात तो साफ है कि दल-बदल निरोधक कानून आया राम-गया राम की राजनीति पर अंकुश लगाने में नाकामयाब रहा है। बल्कि कहा जा सकता है कि सत्ता के लिये महत्वाकांक्षी राजनेताओं ने कानून के प्रावधान में नये छिद्र तलाशे हैं। बल्कि यूं कहें कि दलबदल का दायरा बड़ा हो गया है। इस बदलाव का संकेत यह भी है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल सत्ता व अन्य ताकत के स्रोतों के जरिये किसी भी दल में तोड़फोड़ करने में सक्षम हो जाता है। राज्य में सरकार बनाने के लिये पहले भाजपा व शिवसेना का मिलकर चुनाव लड़ना और चुनाव के बाद भाजपा से नाता तोड़कर शिवसेना का कांग्रेस, राकांपा आदि दलों के साथ सरकार बनाना, फिर शिवसेना में विद्रोह और भाजपा के साथ बागी शिवसैनिकों का सरकार में शामिल होना बताता है कि कैसे राजनेता किसी दल विशेष के खिलाफ जनता से वोट मांगते हैं और फिर सत्ता सुख के लिये उसी विरोधी राजनीतिक दल के बगलगीर हो जाते हैं। निस्संदेह, ये मतदाताओं के साथ छल ही है। आप ने दूसरे मुद्दों पर वोट मांगा और किसी दल विशेष के खिलाफ जनादेश पाया और बाद में कुर्सी के लिये उसी दल की सरकार का हिस्सा हो गये। पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र में राजनीतिक विद्रूपता के साथ ही राज्यपाल की भूमिका को लेकर भी खासे विवाद हुए। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट को सख्त टिप्पणी करनी पड़ी। लेकिन एक बात तो तय है कि कदम-कदम पर लोकतांत्रिक शुचिता का हनन जारी है। बहरहाल,सत्ता सुख के लिये राजनीतिक विद्रूपताओं का चेहरा सबके सामने उजागर हो गया है।

वहीं दूसरी ओर राकांपा में चाचा -भतीजे की महत्वाकांक्षाओं से उपजी फूट में कहीं न कहीं परिवारवादी राजनीति का हश्र भी सामने आया है। देश में कुछ दशकों से परिवारवाद की राजनीति का जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, यह उसकी परिणति ही है। हालांकि, पहले भी अजीत पवार भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन हालिया संकट तब उपजा जब शरद पवार ने अपनी राजनीतिक विरासत बेटी सुप्रिया सुले को सौंपी। यही पुत्री मोह शरद पवार को भारी पड़ गया। निस्संदेह, जो राजनीतिक दल परिवारवाद की राजनीति का पोषण करते हैं उन्हें कालांतर परिवार के बिखराव का दंश भी भुगतना ही पड़ता है। बहरहाल, यह घटनाक्रम न केवल राष्ट्रवादी कांग्रेस बल्कि महाविकास अघाड़ी के लिये भी बड़ा झटका है। वहीं दूसरी ओर पिछले दिनों शुरू हुई विपक्षी एकता की कोशिशों को भी इस घटनाक्रम से क्षति पहुंची है। जाहिर तौर पर तोड़फोड़ के इस खेल का लक्ष्य अगले साल होने वाला आम चुनाव भी है। यह सर्वविदित है कि उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा की सीटें महाराष्ट्र से ही हैं। वहीं दूसरी ओर राज्य सरकार चला रहे दलों को आम चुनाव में सुविधाजनक तंत्र के चलते कुछ बढ़त तो मिलती ही है। राज्य में तुरत-फुरत हुए शपथ ग्रहण कार्यक्रम के आयोजन के निहितार्थ यह भी थे कि पहली बार चाचा से विद्रोह करने वाले अजीत पवार कहीं पहले की तरह फिर से राकांपा के खेमे में न लौट जाएं। जाहिरा तौर पर आने वाले दिनों में लड़ाई इस बात को लेकर भी होगी कि पार्टी का असली मुखिया कौन होगा। असली राकांपा किसके हिस्से में आती है। आने वाले दिनों में राजनीति के महारथी शरद पवार अदालत व चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटा कर अपनी राजनीतिक विरासत को पाने को प्रयास करेंगे। वहीं दूसरी ओर राज्य में सत्ता के समीकरणों में कुछ बदलाव देखने को मिलेगा। देखना होगा कि एकनाथ शिंदे मजबूत होते हैं कि देवेंद्र फडणवीस। बहरहाल, घटनाक्रम जनता के लिये सबक है कि कैसे राजनीतिक दल मूल्यों व जनता हित की दुहाई देकर तुरत-फुरत दूसरे दल के खेमे में चले जाते हैं।

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