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जानलेवा प्रदूषण

जीवन प्रत्याशा घटना घातक संकेत

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यह विडंबना ही है कि देश में प्रदूषण व अन्य पर्यावरणीय संकट से जुड़े निष्कर्ष विदेशी एजेंसियों, विश्वविद्यालयों तथा विदेशी जर्नल के जरिये सामने आए तथ्यों के आधार पर पेश किये जाते हैं। कहना कठिन है कि शोध व अध्ययन के ये आंकड़े कितने तार्किक व विश्वसनीय हैं। यह भी कि उसमें बाजार की कितनी भूमिका है। विगत में पश्चिमी देशों की विशालकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकासशील देशों की प्रतिष्ठा से खेलने का उपक्रम भी करती रही हैं। विडंबना यह भी है कि ये अध्ययन उन विकासशील देशों को केंद्र में रखकर किये जाते हैं, जो सदियों औपनिवेशिक शासन के जरिये इन्हीं विकसित देशों द्वारा शोषित होते रहे हैं। जाहिर है अर्थव्यवस्था को गति देने हेतु औद्योगिक इकाइयों का विस्तार इन देशों की मजबूरी है। बड़ी आबादी को रोजगार देना भी विवशता है। अपना लक्षित विकास कर चुके विकसित देश अब ग्लोबल वार्मिंग व प्रदूषण का ठीकरा विकासशील देशों के सिर फोड़ने पर आमादा रहते हैं। बहरहाल, इसके बावजूद यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के एक संस्थान की वह रिपोर्ट हमें परेशान करती है कि वायु प्रदूषण के चलते भारत में जीवन प्रत्याशा में गिरावट आ रही है। जिसमें फेफड़ों को नुकसान पहुंचाने वाले पी.एम. 2.5 कण की बड़ी भूमिका है। रिपोर्ट बताती है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से कहीं अधिक प्रदूषण भारत में लोगों की औसत आयु पांच साल कम कर रहा है। जबकि दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी दिल्ली के बारे में अध्ययन बताता है कि लोगों की उम्र 11.9 साल घट सकती है। बहरहाल, इन आंकड़ों का सत्यापन करने और प्रदूषण के खिलाफ योजनाबद्ध ढंग से मुहिम छेड़ने की भी जरूरत है। अध्ययन इशारा करता है कि देश की एक अरब तीस करोड़ की आबादी ऐसी जगहों पर रहती है जहां प्रदूषण डब्ल्यूएचओ के मानकों से कहीं अधिक है। वहीं दो तिहाई भारतीय जनसंख्या ऐसे शहरों में निवास करती है, जहां प्रदूषण भारतीय मानकों से भी अधिक है। दूसरी ओर भारत का सबसे कम प्रदूषित शहर भी डब्ल्यूएचओ के निर्धारित मानकों से सात गुना अधिक प्रदूषित है।

सवाल यह है कि हमारे नीति-नियंता इस विकट होती स्थिति से निबटने के लिये युद्धस्तर पर पहल क्यों नहीं करते। दीवाली के बाद जब दिल्ली गहरे प्रदूषण के आगोश में होती है तो कोर्ट से लेकर सरकार तक अति सक्रियता दर्शाते हैं। लेकिन स्थिति थोड़ी सामान्य होने पर परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’। कभी पेट्रोल-डीजल के नये मानक तय किये जाते हैं तो कभी जीवाश्म ईंधन पर रोक लगाने की बात की जाती है। फिर पराली को लेकर ठीकरा पंजाब व हरियाणा के किसानों के सिर फोड़ दिया जाता है। जिससे रह-रह कर प्रदूषण गंभीर स्थिति में पहुंचता रहता है। इसी कड़ी में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष 2019 में यह कार्यक्रम देश के सौ से अधिक शहरों में शुरू किया था। जिसका मकसद ज्यादा प्रदूषित शहरों में हवा के स्तर को सुधारना था। विडंबना यह है कि चार साल बाद पता चला कि किसी भी शहर ने अपने लक्ष्य को पूरा नहीं किया। यह चिंताजनक स्थिति तब है जबकि हवा को स्वच्छ बनाये रखने के लिये विभिन्न शहरों को छह हजार करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे। जहां कुछ सुधार हुआ भी, सर्दियों में स्थिति जस की तस हो गई। वहीं दूसरी ओर विडंबना यह भी है कि जहां एक ओर विकासशील देश पहले ही निर्धारित वायु गुणवत्ता के मानक पूरा नहीं कर पा रहे हैं डब्ल्यूएचओ ने मानकों को और कठोर बना दिया है। ऐसी स्थिति में जब पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का संकट गहरा रहा है सभी सरकारों व नागरिकों का दायित्व बनता है कि अपने-अपने स्तर पर प्रदूषण को कम करने वाली जीवन शैली अपनाएं। निस्संदेह, गरीब मुल्कों के सामने जीविका संकट पहले से ही हैं, लेकिन समय की संवेदनशीलता को देखकर नीतियों का निर्धारण करना होगा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि पूरी दुनिया में सत्तर लाख मौतें हर साल प्रदूषित वायु के चलते हो रही हैं। जिसके लिये ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना दुनिया की प्राथमिकता होनी चाहिए।

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