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आत्मघात की मजबूरी

सरकार-शिक्षण संस्थानों की जवाबदेही तय हो

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यह तथ्य हृदयविदारक ही है कि देश में एक साल के दौरान करीब चौदह हजार छात्रों ने आत्महत्या की। पहली नजर में आत्मघात के मूल में पढ़ाई का दबाव, छात्रों की संवेदनशीलता और तंत्र की नाकामी बताई जा सकती है। लेकिन सवाल है कि हमारा तंत्र क्यों संवेदनहीन बना हुआ है? यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को तलब करके इस बाबत विस्तृत विवरण मांगा है। साथ ही सवाल पूछा है कि क्या देश के सभी शिक्षण संस्थान छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जिम्मेदारी निभा रहे हैं? विडंबना यह है कि देश में मोटी पगार वाली नौकरियों की गलाकाट स्पर्धा में शिक्षण संस्थाएं व शिक्षक उस दायित्व को भूल गए हैं, जो छात्रों को विषयगत शिक्षा के साथ विषम परिस्थितियों के बीच जीवन जीने की कला सिखा सके। उन्हें व्यावहारिक जीवन का कौशल सिखाने के साथ ही चुनौतियों से जूझने की मानसिक शक्ति विकसित करने के लिए तैयार कर सकें। आखिर किसी परिवार की उम्मीद को किस स्थिति में यह सोचना पड़ता है कि मौत को गले लगाना अंतिम विकल्प है? शिक्षा परिसरों में ऐसी स्थितियां क्यों विकसित हो रही हैं कि विद्यार्थी जीवन से हार मानने लगे हैं? निस्संदेह, शिक्षण संस्थानों का एक मात्र लक्ष्य किताबी ज्ञान देकर डिग्री बांटने तक ही नहीं हो सकता। शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन तंत्र को अपने परिसर में समता, ममता और सहजता का वातावरण तैयार करना होगा। जहां किसी भी तरह तनाव, मानसिक कष्ट व भेदभाव नजर न आए और कारगर शिकायत निवारण तंत्र विकसित हो। ऐसा न होने पर ही सरस्वती के मंदिरों में तनाव की फसल उग रही है। हमारे नीति-नियंता इस दुखदायी स्थिति पर अंकुश लगाने हेतु किसी तरह की गंभीर पहल करते नजर नहीं आते। यदि गाल बजाने वाले राजनेता कोई कदम उठाने की लोकलुभावनी घोषणा करते भी हैं तो भी जमीनी हकीकत बदलती नजर नहीं आती। घोषणाएं प्रभावी भी होनी चाहिए।

सवाल यह भी है कि शैक्षणिक परिसरों में आत्महत्या रोकने के लिये जो कदम केंद्र व राज्य सरकारों को उठाने चाहिए थे, उसके बाबत देश की शीर्ष अदालत को क्यों पहल करनी चाहिए? इस मामले में सख्त रवैया अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि केंद्र व राज्य सरकारें आठ सप्ताह के भीतर वह विस्तृत ब्योरा प्रस्तुत करें, जो आत्महत्या रोकने के दिशा-निर्देशों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करे। दुखद स्थिति यह भी है कि देश में छात्रों के आत्मघात के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, इसकी पुष्टि खुद राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो भी कर रहा है। जो साल 2023 में देश की शिक्षण संस्थाओं में 13,892 छात्रों की मौत को गले लगाने की बात स्वीकार करता है। सबसे दुखद स्थिति यह है कि यह संख्या पिछले एक दशक में पैंसठ प्रतिशत बढ़ी है। वहीं इस आंकड़े की तुलना यदि वर्ष 2019 से करें तो यह वृद्धि चौंतीस फीसदी दर्ज की गई है। जाहिर बात है कि यह वृद्धि छात्रों की मानसिक पीड़ा, हताशा और भविष्य के प्रति निराश होने की स्थिति को ही दर्शाती है। निश्चित रूप से हमारी शिक्षा की विसंगतियां भी इन आत्महत्याओं के मूल में हैं। देश में भाषा व बोर्ड स्तर पर पाठ्यक्रम व शिक्षण की स्थिति में खासा अंतर है। पैसे वालों के बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं। रही-सही कसर उनके महंगे कोचिंग सेंटरों द्वारा पूरी की जाती है। हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों की सारी ऊर्जा अपने ज्ञान को अंग्रेजी में ट्रांसलेट करने में चली जाती है। कालांतर में वे उच्च शिक्षा संस्थानों में हीनग्रंथि का शिकार हो जाते हैं। ऐसी तमाम ग्रंथियां छात्रों को अपराधबोध से भर देती हैं। पढ़ाई के दबाव के अलावा शिक्षा संस्थानों के परिसर में हिंसा और जातिगत भेदभाव की खबरें भी आती हैं जो संवेदनशील छात्रों को हताशा से भर देती हैं। निश्चय ही सजगता व संवेदनशीलता से ऐसी परिस्थितियों से छात्रों को बचाया सकता है। यही वजह है कि देश की शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में शिक्षण संस्थानों और सरकार को जरूरी दिशानिर्देश दिए हैं। निस्संदेह, देश के युवाओं में आत्मघात की प्रवृत्ति राष्ट्र की गंभीर क्षति है, जिसे संवेदनशील ढंग से दूर करने की तत्काल जरूरत है।

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