दशकों से मीडिया व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े लोग तथा संगठन, जिस प्रदूषण संकट के प्रति चेताते रहे हैं, उसके घातक परिणाम अब साफ सामने नजर आने लगे हैं। विडंबना यह है कि देश की राजधानी व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ही नहीं, अब देश के तमाम बड़े-छोटे शहरों से भी जानलेवा प्रदूषण की खबरें आ रही हैं। इस घातक व मारक संकट की पुष्टि बहुचर्चित मेडिकल जर्नल लैंसेट की हालिया रिपोर्ट करती है। रिपोर्ट दावा करती है कि देश की हवा में 2010 की तुलना में साल 2022 तक प्रदूषणवाहक पीएम 2.5 कणों की मात्रा में 38 फीसदी तक का बढ़ावा हुआ है। जिसका घातक प्रभाव यह है कि करीब सत्रह लाख लोग असमय काल-कवलित हो चले हैं। इससे होने वाला आर्थिक नुकसान अलग है। यह कहना कठिन है कि अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका के आंकड़े कितने विश्वसनीय हैं। बहुत संभव है कि सरकारें इन आंकड़ों पर सहमति न जताएं, लेकिन दीपावली के बाद दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र समेत देश के विभिन्न शहरों में प्रदूषण जिस घातक स्तर तक पहुंचा है, वह हालात के गंभीर होने की ओर इशारा तो करता ही है। एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ने दिल्ली को दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर का खिताब भी दिया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अस्पतालों में प्रदूषणजनित रोगों का उपचार कराने वाले लोगों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई है। जीवन के संघर्ष में रोजी-रोटी की कवायद में जुटे लोगों को यह अहसास भी नहीं होता है कि वे दिन में कितनी जहरीली हवा निगल रहे हैं। हमारे शहर केंद्रित विकास की विसंगितयां भी शहरों में प्रदूषण का दायरा बढ़ा रही हैं। शहरों में उगते कंक्रीट के जंगल न केवल हवा के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर रहे हैं बल्कि वाहनों के सैलाब को भी बढ़ावा दे रहे हैं। विडंबना यह है कि इसके बावजूद राजनीतिक दलों व सरकारों में वह इच्छाशक्ति नजर नहीं आती, जो इस संकट के कारगर समाधान की राह दिखाती हो।
निश्चित तौर पर प्रदूषण संकट की यह जानलेवा स्थिति हमें शर्मसार करने वाली है। यह हमारी सामूहिक विफलता की तसवीर भी उकेरती है। सर्दियों का मौसम आते ही दिल्ली व निकटवर्ती शहरों में जो प्रदूषण का बड़ा संकट दिखायी देता है, आखिर उसे साल भर सतर्कता के साथ क्यों नहीं देखा जाता। देश में आर्थिक असमानता व गरीबी के चलते लाखों लोग व बच्चे उन अस्वस्थकारी परिस्थितियों में काम करने को बाध्य हैं, जो कालांतर जानलेवा रोगों का सबब बनती हैं। देश में करोड़ों बाल श्रमिक पटाखा, कालीन और अन्य सांस के रोगों का संकट बढ़ाने वाले उद्योगों में काम कर रहे हैं। व्यवस्था का भ्रष्टाचार नियामक एजेंसियों को हिलने तक नहीं देता। दरअसल, यह प्रदूषण मौसमी बदलाव, पटाखों या पराली जलाने से ही नहीं पैदा होता। दरअसल, इसके मूल में शासन-प्रशासन की वह विफलता भी शामिल है, जो वातावरण को जहरीला बनाने वाले उद्योगों तथा निर्माण में उड़ने वाली धूल की सतर्क निगरानी नहीं करती। दरअसल, हमारे जीवन की कृत्रिमता व सुविधाभोगी जीवनशैली ने उन घातक गैसों को बढ़ावा दिया जो ग्लोबल वार्मिंग व प्रदूषण की कारक बनती हैं। इस समस्या का एक पहलू यह भी है कि देश की जनता इस आसन्न संकट के प्रति लगातार उदासीन बनी रहती है। वह चुनावों के दौरान न तो राजनेताओं पर इस संकट के समाधान के लिये दबाव बनाती है और न ही निजी जीवन में ऐसी कोई पहल करती है। इस तरह कहीं न कहीं इस प्रदूषण वृद्धि में हमारी भागीदारी बनी हुई है। अब भले ही कार्बन उत्सर्जित करने वाले ईंधन के उपयोग में कमी आई है, लेकिन अभी भी इस दिशा में काम करने की जरूरत है। हम निजी जीवन में जितनी स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देंगे, उतना ही प्रदूषण धीरे-धीरे कम होता जाएगा। जनता को शासन-प्रशासन पर दबाव बनाना चाहिए कि वह समय रहते प्रदूषण नियंत्रण के लिये प्रयास करे। व्यक्ति के तौर पर हमें पटाखे व पराली जलाने वालों की निगरानी करनी होगी, ताकि प्रदूषण का स्तर कम करने में हमारी भागीदारी सुनिश्चित हो सके।

