चुनौतियों वाली पारी
आखिरकार सबसे लंबे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए। जदयू सुप्रीमो ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही सत्ता का एक नया कार्यकाल शुरू कर दिया। यद्यपि हालिया चुनाव में भाजपा ने जदयू से ज्यादा सीटें हासिल करके सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उपस्थिति दर्ज करायी है, लेकिन इसके बावजूद चार कम सीट जीतने वाले जदयू के 74 वर्षीय दिग्गज को मुख्यमंत्री बने रहने देना ही बेहतर समझा है। वहीं सहयोगी दल भाजपा से सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा के उपमुख्यमंत्री पद बरकरार रहे। निस्संदेह, नीतीश का पिछला कार्यकाल उतार-चढ़ाव भरा रहा था। उन्होंने पहले भाजपा के साथ सरकार बनायी और मनभेद के चलते महागठबंधन में शामिल हुए। फिर पलटी लेकर भाजपा के साथ सरकार में शामिल हो गए थे। इसके बावजूद बिहार की जनता ने उनकी इस उलट-पलट को माफ ही कर दिया। संभवत: उनकी इस अपील पर वोट दिया कि यह उनकी आखिरी पारी है। जनता ने उनके नेतृत्व वाली डबल इंजन सरकार के स्थायित्व पर भरोसा जताया। शायद बिहार की जनता जंगल राज के दु:स्वप्न को नहीं भूली है। एक बात तो तय है कि राज्य की जनता ने तमाम किंतु-परंतुओं के बावजूद बिहार के भविष्य के लिये उन्हें बेहतर माना है। यही वजह है कि रिकॉर्ड दसवीं बार शपथ लेने वाले नीतीश को बधाई देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें सुशासन के सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड वाला एक अनुभवी प्रशासक बताया है। लेकिन राजनीतिक पंडित कयास लगा रहे हैं कि भाजपा कब तक छोटे भाई की भूमिका में रहेगी? विपक्ष को संदेह है कि नीतीश शायद ही अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। उन्हें आशंका है कि भाजपा किसी न किसी स्तर पर बिहार में पार्टी का मुख्यमंत्री बनाना चाहेगी। राजनीतिक विश्लेषक महाराष्ट्र का उदाहरण देते हैं, जहां भाजपा ने पहले शिवसेना के एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया और बाद में उन्हें हटाकर देवेंद्र फड़नवीस को कुर्सी पर बैठा दिया।
वहीं कुछ राजनीतिक पंडितों का तर्क है कि भाजपा के पास केंद्र में पूर्ण बहुमत नहीं है, इसलिए एनडीए सरकार को सहारा देने के लिये भाजपा को नीतीश के समर्थन की जरूरत बनी रहेगी। इस बात से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि जदयू अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये बेहतर स्थिति में है। बहरहाल, नीतीश की तात्कालिक प्राथमिकताएं बेरोजगारी दूर करने और पलायन पर अंकुश लगाने की होनी चाहिए। हकीकत यह है कि राज्य में रोजगार संकट के चलते बिहार के तीन घरों में से दो का एक सदस्य दूसरे राज्य में काम करने को मजबूर है। साथ ही नीतीश को सरकार बनाने में भरपूर समर्थन देने वाली महिलाओं की आकांक्षाओं के अनुरूप, उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के प्रमुख चुनावी वायदे को प्राथमिकता के आधार पर पूरा करना चाहिए। इसके अलावा उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि जदयू मजबूत और अक्षुण्ण बना रहे। यह अवश्यंभावी है कि भाजपा और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी उन्हें सतर्क बनाए रखेगी। भाजपा के मन में यह कसक जरूर रहेगी कि सबसे बड़े दल के रूप में उदय होने पर भी पार्टी बिहार में अब तक अपनी सरकार नहीं बना पायी है। ऐसे में नीतीश को बाहरी विपक्षी से तो नहीं, गठबंधन के दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से जूझना पड़ेगा। वहीं प्रचंड बहुमत देने पर जनता की उम्मीदें भी उफान पर रहेंगी। राजग द्वारा चुनाव के दौरान तमाम वायदे किए गए थे, लेकिन राज्य की कमजोर आर्थिक स्थिति के मद्देनजर इन सब वायदों को पूरा करना आसान न होगा। वहीं दूसरी ओर नीतीश के सामने उनकी सेहत और बढ़ती उम्र को लेकर भी चुनौती पैदा हो सकती है। जिसको लेकर विपक्ष पूरे चुनाव अभियान के दौरान लगातार हमलावर बना रहा है। साथ ही बिहार की डेढ़ करोड़ महिलाओं को दस हजार रुपये लगातार दे पाना भी परेशानी का सबब बन सकता है। वहीं गठबंधन सरकार के लिए चुनाव से पहले एनडीए गठबंधन द्वारा किए गए मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली,मुफ्त इलाज,सामाजिक सुरक्षा पेंशन देने तथा पचास लाख पक्के मकान के वायदे को हकीकत में बदलने कोे वित्तीय संसाधन जुटाना भी एक बड़ी चुनौती साबित होगी।
