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आपदा की वजह

तबाही के कारणों की पड़ताल जरूरी
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उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद स्थित धराली में आई आपदा ने देश-दुनिया को गहरे तक आहत किया है। मलबे और बाढ़ के पानी के सैलाब ने जिस तरह घरों, होटलों व बगीचों तथा खेत-खलिहानों को तबाह किया, उसने आम लोगों को भयभीत किया। पहाड़ की भौगोलिक जटिलताओं व बचाव के संसाधन पहुंचाने में देरी से राहत कार्य बाधित हुआ है। निस्संदेह, हादसे से जुड़ा पहलू यह भी है कि तंत्र की अनदेखी व खीरगंगा के विस्तार क्षेत्र की आशंकाओं को नजरअंदाज करके जो निर्माण किया गया, वह सैलाब की जद में आया। सवाल यह है कि वे कौन से कारण थे कि बेहद तीव्र वेग से आये सैलाब ने लोगों को भागने तक का मौका नहीं दिया। हालांकि, मरने वालों की वास्तविक संख्या सामने नहीं आयी है, लेकिन सैलाब की भयावहता को देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि जनधन की बड़ी हानि हुई होगी। असली सवाल यह है कि ये आपदा कैसे आयी। आजकल ऐसे हादसों की साधारण व्याख्या होती है कि हादसा बादल फटने से हुआ। लेकिन धराली में आपदा की वजह बादल फटना मानने को वैज्ञानिक तैयार नहीं हैं। वैज्ञानिक इस वजह से बादल फटने के तर्क को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि मौसम विभाग के अनुसार 4-5 अगस्त को उस क्षेत्र में महज आठ से दस मिमी बारिश ही हुई थी। वैज्ञानिक मानक के अनुसार बादल फटने की घटना तब होती है जब उस इलाके में 100 मिमी से अधिक बारिश हुई हो। दरअसल, धराली गांव के पीछे डेढ़-दो किलोमीटर लंबा और बेहद घना जंगल है। दोनों तरफ ऊंचे व तीव्र ढलान वाले पहाड़ हैं। जिस खीरगंगा में फ्लैश फ्लड आया है, वो उन्हीं घने जंगलों से होकर गुजरती है। वैज्ञानिक एक तर्क पर विचार कर रहे हैं कि कहीं घने जंगलों वाले इलाके में भूस्खलन की वजह से पानी का प्रवाह रुक गया होगा, जिसके बाद अस्थाई झील टूटने से आपदा आई होगी।

दरअसल, इस जल प्रलय की जद में आने वाला क्षेत्र फ्लड प्लेन इलाके में बसा है। उसके ऊपर के इलाके में बर्फीले पर्वत बताए जाते हैं। यह हकीकत है कि धराली और उसके आस-पास बेहद संकरी घाटी और ऊंचे पहाड़ हैं। वैज्ञानिकों का तर्क है कि बादल फटने के बाद आने वाला जल प्रवाह इतना तेज नहीं होता। पहले इसकी गति धीमी होती है, कालांतर में गति तेज हो जाती है। इसी वजह से वैज्ञानिक तूफानी गति से पानी-मलबा आने की वजह अस्थायी झील का टूटना बता रहे हैं। भूस्खलन या ग्लेशियर टूटने से झील का पानी सैलाब में बदल गया। इस आशंका को मानने की एक वजह यह भी है कि आपदा वाले दिन जो पानी नीचे आया वह काले रंग का था। साथ मलबा स्लेटी रंग का था। तर्क है कि ऐसा काला पानी व स्लेटी रंग का मलबा पहले से जमा हुए स्थान के टूटने के बाद ही आता है। ऐसी ही स्थिति वर्ष 2021 में चमोली जनपद के ऋषिगंगा हादसे के दौरान एक अस्थायी झील टूटने के बाद जमा मलबे के बहकर आने के वक्त देखी गई थी। दरअसल, वैज्ञानिक पहले भी आशंका जताते रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते बढ़ते तापमान की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। पिघली बर्फ के पानी से बनी झीलें कालांतर भूस्खलन या बादल फटने के बाद टूट जाती हैं और सैलाब तेज ढलान पर उतरकर तबाही लाता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 की केदार घाटी में आई आपदा भी चोराबारी झील के टूटने से निकले सैलाब की वजह से हुई थी। दूसरी विडंबना यह भी है कि ग्लोबल वार्मिंग व बढ़ते तापमान की वजह से ऊंचे पहाड़ों में बारिश की प्रकृति में कुछ वर्षों से बदलाव आया है। सामान्यत: तीन चार हजार मीटर की ऊंचाई पर पहले बर्फबारी होती थी, बारिश नहीं। लेकिन अब लगातार होती बारिश से ग्लेशियर टूट रहे हैं। जो कालांतर अस्थायी झील पर गिरते हैं तो झील का पानी पहाड़ों के तीव्र ढलान पर तेजी से बहता है। जब उसके साथ मलबा, पत्थर व मिट्टी मिल जाती है तो उसकी धार मारक हो जाती है। बहरहाल, वास्तविक स्थिति सेटेलाइट इमेज से ही स्पष्ट हो पाएगी।

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