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निर्लज्ज वकालत

बिलकिस केस में गुजरात को दिखाया आईना
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यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है। पिछले ही माह स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री ने राज्य सरकारों को नसीहत दी थी कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों के मामलों में त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। भले ही तात्कालिक रूप में उनके कथन का इशारा कोलकाता में एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ दुराचार के बाद की गई नृशंस हत्या की तरफ था। उनकी इस बात को राज्यों को व्यापक संदर्भ में लिया जाना चाहिए। वैसे यह संभव नहीं है कि प्रधानमंत्री की स्मृति में वर्ष 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के दौरान अमानवीय बर्बरता की शिकार बिलकिस बानो का मामला न रहा हो। इस दुखद घटना में गर्भावस्था के दौरान न केवल उसके साथ दुराचार हुआ था बल्कि उसके भरे-पूरे परिवार के सात सदस्यों की भी हत्या कर दी गई थी। सर्वविदित है कि मोदी उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री थे। संयोग से यह एक और स्वतंत्रता दिवस था, जब वर्ष 2022 में भारत आजादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहा था तो गुजरात सरकार ने उन ग्यारह दोषियों को रिहा कर दिया था, जिन्हें इस मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनायी गई थी। दलील दी गई कि तकनीकी तौर पर वे उम्रकैद की निर्धारित अवधि पूरी कर चुके हैं और उनका जेल में व्यवहार संतोषजनक है। जैसे ही ये दोषी ठहराये लोग गोधरा उप-जेल से बाहर निकले,उनका फूल-मालाओं के साथ स्वागत किया गया था। जैसे वे अक्षम्य अपराध के अपराधी नहीं बल्कि समाज के नायक हों। उल्लेखनीय है कि इस कांड के दोषियों को रिहा करने के चौंकाने वाले फैसले पर विवाद होने और न्यायिक सक्रियता के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। इस मामले में न केवल राजनीतिक स्तर पर विरोध हुआ बल्कि पीड़ित पक्ष ने दोषियों की रिहाई का कड़ा प्रतिवाद किया था। पीड़ित पक्ष ने दोषियों की रिहाई को अपनी सुरक्षा के लिये खतरा बताते हुए न्यायिक संरक्षण की मांग की थी। इसके बावजूद राज्य सरकार इस मामले में लगातार बचाव करती रही है।

अब इस फैसले की समीक्षा की मांग करने वाली राज्य सरकार की कोशिश को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया है। इस कोशिश से संदेह करने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि राज्य के अधिकारियों ने दो साल पहले सजा माफी के लिये आधार तैयार करने के लिये तथ्यों को छिपाकर अदालत की दूसरी पीठ को भ्रमित किया था। उल्लेखनीय है कि पीड़ित पक्ष ने इस मामले में अदालती सुनवाई गुजरात से बाहर करने की मांग की थी। उन्हें आशंका थी कि यदि राज्य में मामले में मुकदमा चलता है तो गवाहों पर दबाव बनाकर न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित किया जा सकता है। इन्ही बातों के मद्देनजर इस मामले में महाराष्ट्र में मुकदमा चला और लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद दोषियों को सजा सुनाई गई थी। निश्चित रूप से इस मामले में माफी आदेश पारित करने का अधिकार भी सिर्फ और सिर्फ महाराष्ट्र सरकार का था। जबकि येन-केन-प्रकारेण गुजरात सरकार ने यह अधिकार हथिया लिया। इसी कड़ी में कालांतर केंद्र सरकार ने आजीवन कारावास की सजा काट रहे लोगों की समय पूर्व रिहाई पर अपनी मोहर लगा दी थी। अब जब एक बार फिर गुजरात सरकार ने इस मामले में मुंह की खाई है तो निश्चित रूप से इस घटनाक्रम ने उसे आत्मनिरीक्षण करने को बाध्य किया होगा। वहीं दूसरी ओर गुजरात सरकार को प्रधानमंत्री के वे शब्द नहीं भूलने चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था- ‘हमें महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने वालों में डर की भावना पैदा करने की जरूरत है।’ अब चाहे कोई भी राज्य सरकार हो, उसे अपराधियों को संरक्षण देते नजर नहीं आना चाहिए। निश्चित रूप से इससे सरकार की विश्वसनीयता पर आंच ही आएगी। वहीं दूसरी ओर सरकारों की ऐसी भूमिका से अपराधियों का हौसला ही बढ़ेगा। सरकारों का दायित्व बनता है कि वे धर्म व जाति की सीमाओं से परे पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने की ईमानदार कोशिश करें। साथ ही समाज में न्याय होता नजर भी आना चाहिए।

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