Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

लाउडस्पीकर पर रोक

अभिव्यक्ति व धर्म की स्वतंत्रता से नहीं संबंध
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

गाहे-बगाहे कोर्ट की सख्ती के बावजूद विभिन्न धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल बंद नहीं हुआ। दिनभर के थके-हरे लोग जब घर में आराम करते हैं तो लाउडस्पीकरों की तीव्र ध्वनि उनकी शांति में खलल डालती है। डॉक्टर भी कहते हैं कि नींद में किसी भी तरह का व्यवधान व्यक्ति के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है। फिर जो लोग पहले से बीमार होते हैं,उनके लिये तो तेज शोर असहनीय होता है। लेकिन वर्तमान ध्रुवीकृत समाज में लाउडस्पीकरों का बेलगाम शोर प्रतिष्ठा का मुद्दा बन जाता है। लोग परेशान होने पर भी शिकायत नहीं करते। उन्हें डर होता है कि धार्मिक समूह उन्हें निशाना बना सकते हैं। विडंबना यह है कि नियामक एजेंसियां भी स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई नहीं करती। इस बाबत दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार शोर-शराबे पर काबू करे। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इसलिए ध्वनि प्रदूषण के नियमों के उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई की जाए। कोर्ट ने पुलिस से कहा कि धार्मिक स्थलों पर लगाए गए लाउडस्पीकरों के शोर को मापने के लिए ऐप का प्रयोग करे ताकि नियम का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई की जा सके। उन पर जुर्माना लगे। फिर भी उल्लंघन होने पर प्रबंधकों व संचालकों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जाए। यहां तक कि कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिए कि शिकायतकर्ता की सुरक्षा के मद्देनजर उसकी पहचान गोपनीय रखी जाए। साथ ही ध्वनि विस्तारक यंत्रों के भीतर ऐसा सिस्टम लगे, जो उसकी ध्वनि के स्तर को स्वत: नियंत्रित करे। न्यायाधीशों की दो सदस्यीय बेंच ने माना कि निर्धारित मानक से अधिक शोर सेहत पर प्रतिकूल असर डालता है। अत: कोई व्यक्ति इसके इस्तेमाल को अपना अधिकार नहीं बता सकता। अदालत ने कहा कि राज्य सरकार धार्मिक स्थलों से होने वाले शोर पर नियंत्रण के लिये ठोस प्रयास करे।

कोर्ट ने राज्य सरकार से यह भी कहा कि ध्वनि विस्तारक यंत्रों तथा जनसमूह को संबोधित करने वाले सिस्टम की शोर सीमा को नियंत्रित करे। नियामक एजेंसियां निगरानी व शोर नापने के लिये ऐप प्रयोग करे। नियमानुसार दिन में ध्वनि का स्तर 55 तथा रात में 45 डेसिबल से अधिक नहीं हो। दरअसल, मुंबई में कुर्ला क्षेत्र में एक धार्मिक स्थल से निर्धारित मानकों से अधिक स्तर का ध्वनि प्रदूषण रोकने में पुलिस की निष्क्रियता के खिलाफ यह याचिका दायर की गई थी। वास्तव में लोग तभी शिकायत करते हैं जब ध्वनि का स्तर सहने की सीमा पार कर जाता है। अदालत ने शिकायतकर्ता की पहचान गोपनीय रख कर कार्रवाई करने को कहा ताकि उसे सांप्रदायिक आधार पर निशाना न बनाया जा सके। यदि जुर्माना लगाने के बावजूद स्थिति नहीं सुधरती तो पुलिस धार्मिक स्थल पर लगे लाउडस्पीकर को जब्त करे। फिर उसके लाइसेंस को रद्द करने की कार्रवाई करे। साथ ही ध्वनि प्रदूषण नियंत्रक नियमों तथा पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत भी कार्रवाई हो। कोर्ट माना कि कठोर कानून के अभाव में लाउडस्पीकरों के उपयोगकर्ता नियम-कानून को नजरअंदाज करने लगते हैं। नियामक एजेंसियों की निष्क्रियता पर चिंता जताते हुए अदालत का कहना था कि लोग ध्वनि प्रदूषण को लेकर संविधान में वर्णित अभिव्यक्ति व धार्मिक आजादी का तर्क देते हैं, लेकिन इस पर रोक लगाना किसी भी स्थिति मे मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं है। अत: ध्वनि की कर्कशता पर अंकुश लगाकर लोगों को राहत दी जानी चाहिए। दरअसल, पुलिस ऐसे मामलों में इसलिए भी उदासीन रहती है कि कहीं उन पर धार्मिक भावनाएं आहत होने का आक्षेप न लगा दिया जाए। कमोबेश यह स्थिति पूरे देश में और विगत में आए अदालत के फैसले की भी अनदेखी की जाती रही है। कई बार तो प्रशासन की अनुमति के बिना सार्वजनिक कार्यक्रमों का लाउडस्पीकरों से संबोधन बदस्तूर जारी रहता है। लोग इसलिये भी शिकायत नहीं करते हैं ताकि कोई टकराव न हो। धर्म विशेष के लोग उनके घरों के आसपास ही रहते हैं। ऐसे में उन्हें हिंसा की आशंका रहती है। निस्संदेह, नियंत्रण के लिए ढाई दशक पहले बनाये गए ध्वनि प्रदूषण विनियमन व नियंत्रण नियमों को बदलते वक्त के साथ प्रभावी बनाने की जरूरत है।

Advertisement

Advertisement
×