वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश का केंद्र सरकार और विपक्ष दोनों ने ही स्वागत किया है। एक संवेदनशील संतुलन बनाते हुए न्यायालय ने अधिनियम के कुछ प्रमुख प्रावधानों पर रोक लगा दी है। जिसमें एक वह खंड भी शामिल है, जो यह निर्धारित करता है कि पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन करने वाले लोग ही किसी संपत्ति को वक्फ के रूप में समर्पित कर सकते हैं। हालांकि, न्यायालय ने पूरे कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि ‘अनुमान हमेशा किसी कानून की संवैधानिकता के पक्ष में होता है।’ बहरहाल, सत्तारूढ़ भाजपा इस बात से राहत महसूस कर रही है कि अब इस अधिनियम को असंवैधानिक घोषित किए जाने का खतरा नहीं है। जबकि कांग्रेस का दावा है कि इस कानून के पीछे विभाजनकारी एजेंडा उजागर हुआ है। दरअसल, सरकार ने अप्रैल में लागू किए इस कानून को देशभर में वक्फ संपत्तियों के प्रशासन के लिये एक ‘धर्मनिरपेक्ष, पारदर्शी और जवाबदेह’ व्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य से लागू करने की बात कही थी। निस्संदेह, वक्फ बोर्डों पर वर्षों से लग रहे भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन, अतिक्रमण, संपत्ति की अवैध बिक्री और हस्तांतरण आदि के आक्षेपों को देखते हुए, प्रशासन में सुधार के लिये नियंत्रण और संतुलन स्थापित करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है। हालांकि, विपक्ष और कुछ मुस्लिम संगठनों को यह आशंका रही है कि तथाकथित सुधारों का दुरुपयोग वक्फ मामलों में हस्तक्षेप करने और यहां तक कि संपत्तियों को जब्त करने के लिये किया जा सकता है। उनकी दृष्टि में एक विवादास्पद प्रावधान केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने से संबंधित रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे सदस्यों की संख्या को सीमित करने का प्रयास किया है। कहा गया कि कानून में पर्याप्त सुरक्षा उपाय होने चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों का उल्लंघन न हो सके।
दरअसल, विगत में विपक्ष आशंका जताता रहा है कि यह अधिनियम ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकता है और सांप्रदायिक सद्भाव के लिये खतरा बन सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायालय का अंतिम आदेश कानून से जुड़ी ऐसी तमाम आशंकाओं का समाधान कर सकेगा। देश के मौजूदा परिदृश्य में सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिये वक्फ की समृद्ध क्षमता का दोहन करने पर राजनीतिक और धार्मिक सहमति बनाने की आवश्यकता है। निस्संदेह, शीर्ष अदालत का फैसला पूरी तरह से तार्किक आधार रखता है, जिसे संतुलन के हस्तक्षेप की संज्ञा दी जा रही है। जिससे मुस्लिम पक्ष की कतिपय आशंकाओं को दूर करने का ही प्रयास हुआ है। निस्संदेह, शीर्ष अदालत द्वारा किए गए संशोधन में संविधान की मूल भावना का ध्यान रखा गया है। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने उन प्रावधानों पर भी रोक लगायी है, जो जिलाधिकारी या सरकारी अधिकारी को यह तय करने की शक्ति देते थे कि कोई वक्फ संपत्ति सरकारी भूमि है या नहीं। दरअसल, शीर्ष अदालत का मानना था कि जिलाधिकारी कार्यपालिका का अंग ही होता है। अगर उसे यह शक्ति दी जाती है तो यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ होगा। जिसके मूल में यह सोच रही है कि लोकतंत्र के तीन आधारभूत स्तंभों विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति का संतुलन कायम रह सके। जाहिर है कि एक स्तंभ को अधिक शक्तियां मिलने से उसके निरंकुश व्यवहार करने की आशंका बनी रह सकती है। इसके अलावा वक्फ करने के न्यूनतम पांच बरस तक इस्लाम के अनुयायी होने वाले प्रावधान के सत्यापन हेतु राज्य सरकारों से नियम बनाने की जरूरत भी बतायी और तब तक इस प्रावधान पर रोक की बात कही। इस दिशा में राज्य सरकारों को विषय की संवेदनशीलता के मद्देनजर कदम उठाने की जरूरत है। बहरहाल, इस मुद्दे पर विपक्ष व कुछ मुस्लिम संगठनों के विरोध का जो आधार रहा है, उन मुद्दों को संवेदनशील ढंग से संबोधित करने का प्रयास शीर्ष अदालत ने किया है। दरअसल, अदालत ने विधायिका की सीमाओं में हस्तक्षेप किए बिना न्यायिक तार्किकता को प्राथमिकता दी है।