मुख्य समाचारदेशविदेशहरियाणाचंडीगढ़पंजाबहिमाचलबिज़नेसखेलगुरुग्रामकरनालडोंट मिसएक्सप्लेनेरट्रेंडिंगलाइफस्टाइल

नक्सल के नासूर पर प्रहार

विकास की रोशनी दूर करेगी हिंसा का अंधेरा
Advertisement

इसमें दो राय नहीं है कि शीर्ष माओवादी कमांडर हिडमा का मुठभेड़ में मारा जाना वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ देश की दशकों पुरानी लड़ाई में निर्णायक सफलताओं में से एक है। संगठन के शीर्ष नेतृत्व पर प्रहार से देश नक्सली हिंसा से मुक्ति की राह में कामयाबी की तरफ बढ़ा है। लगभग तीन दशकों तक हिडमा बस्तर में चौंकाने वाली रणनीतियों से बड़े हमलों को अंजाम देता रहा है। बताते हैं कि वह सुरक्षा बलों और नागरिकों पर हुए सबसे घातक हमलों का मास्टरमाइंड रहा है। छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सीमा पर सुरक्षा बलों द्वारा हिडमा व उसकी पत्नी समेत छह नक्सलियों को मार गिराना केंद्र सरकार की उस रणनीति की सफलता को दर्शाता है, जिसमें 31 मार्च 2026 तक देश को नक्सलवाद से मुक्त करने का लक्ष्य तय किया गया था। इसी साल मार्च में बीजापुर में जब 50 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था तब गृहमंत्री अमित शाह ने उनके फैसले का स्वागत करते हुए सभी का पुनर्वास करके, उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने की बात कही थी। निस्संदेह, हिडमा का सफाया नक्सलवादी संचालन ढांचे के खात्मे और भारत में उग्रवाद विरोधी तंत्र की एक महत्वपूर्ण जीत का संकेत है। गुरिल्ला आर्मी की बटालियन-1 के कमांडर के रूप में हिडमा का उदय- वंचित युवाओं की भर्ती करने, उन्हें प्रशिक्षित करने और हथियार बनाने की उग्रवादी क्षमता का प्रतीक रहा है। उसकी गिनती सबसे खूंखार नक्सलवादी कमांडर के रूप में होती रही है। अब वर्ष 2010 का दंतेवाड़ा हमला हो या 2013 का झीरम घाटी हमला, पिछले बीस वर्षों में हुए लगभग सभी बड़े नक्सली हमलों के पीछे हिडमा की रणनीति बतायी जाती है। वहीं दूसरी ओर इन हमलों ने भारत की सुरक्षा रणनीति को नया रूप दिया। इससे पहले इसी साल मई में सुरक्षाबलों ने माओवादी संगठन के जनरल सक्रेटरी बसवराजू को भी मार गिराया था। वहीं इस साल विभिन्न मुठभेड़ों में तीन सौ से अधिक नक्सली मारे जाने से नक्सलवाद छोटे इलाके में सिमटा है।

निस्संदेह, सुरक्षा बलों की तत्परता और सुनियोजित अभियानों से नक्सलवाद कमजोर जरूर हुआ है, लेकिन जरूरत उन परिस्थितियों को दूर करने की है, जिन्होंने नक्सलवाद को जन्म दिया। आवश्यकता उन मुद्दों के समाधान की है, जिसके चलते माओवाद को जड़ें जमाने का मौका मिला। बस्तर का अधिकांश क्षेत्र लगातार विकास की विसंगतियों, खनन से संसाधनों के मनमाने दोहन, बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के कारण विस्थापन व जनजातीय समुदायों और राज्य के बीच विश्वास की कमी से जूझता रहा है। अभी भी आदिवासियों की बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, गुणवत्तापूर्ण स्कूलों, भूमि अभिलेखों और कल्याणकारी योजनाओं तक पूरी तरह पहुंच नहीं बन पायी है। दूर-दराज के कई गांवों में ग्रामीणों को प्रशासन का अनुभव नागरिक संस्थानों के बजाय सुरक्षा बलों की मौजूदगी से ही होता है। दरअसल, विकास की नीतियों से जुड़े वायदों और हकीकत का अंतर ही आदिवासियों में असंतोष को बढ़ाता है। भले ही माओवाद का प्रभाव कम हो जाए। वास्तव में जब तक शासन जिम्मेदार, जवाबदेह और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील नहीं बन पाता, तब तक माओवादी संस्कृति के पनपने की आशंकाएं बनी रहेंगी। दरअसल,क्षेत्र में तंत्र की अनुपस्थिति ने ही चरमपंथियों को आदिवासियों के रक्षक के रूप में पेश करने का मौका दिया। निस्संदेह, सुरक्षा बलों ने माओवाद के खात्मे की दिशा में बड़ा काम कर दिया है, अब राज्यों के पास इस रणनीतिक जीत को स्थायी शांति में बदलने का अच्छा अवसर है। इसकी प्राप्ति के लिये यह सुनिश्चित करना जरूरी होगा कि सड़कें, स्कूल, नागरिक अधिकार व आजीविका बस्तर के वनाच्छादित इलाकों तक पहुंचे। तभी देश नक्सली हिंसा के दंश से भविष्य में मुक्त रह पाएगा। अभी नक्सवादियों पर जो चौतरफा दबाव बना है और जिस तरह से नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं, उसके निहितार्थों को स्थायी बनाने की जरूरत है। यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जारी सघन अभियान से बच निकलकर नक्सली देश के अन्य राज्यों में नये ठिकाने न तलाश लें। साथ ही समर्पण करने वाले नक्सलियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने के संवेदनशील प्रयास भी बेहद जरूरी हैं।

Advertisement

Advertisement
Show comments