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निशाने पर सेना

आतंक के खिलाफ निर्णायक फैसले का वक्त
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जम्मू-कश्मीर के कठुआ में घात लगाकर किये गये आतंकी हमले में पांच सैनिकों का शहीद होना दुखद घटना है। हाल के दिनों में सेना व सुरक्षाबलों पर लगातार बढ़ते आतंकी हमलों ने देश की चिंता बढ़ाई है। हाल के लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में भारी मतदान को संकेत माना जा रहा था कि जम्मू-कश्मीर का जनमानस राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़कर लोकतंत्र पर भरोसा जता रहा है। यह भी कि राज्य में बहुप्रतीक्षित विधानसभा चुनाव के लिये अनुकूल माहौल बन रहा है। लेकिन हाल में लगातार बढ़ते हमलों ने हमारी चिंता बढ़ा दी है। यहां उल्लेखनीय है कि ये हमले केंद्र में तीसरी बार राजग सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद अचानक बढ़े हैं। बहरहाल आठ जुलाई को सुनियोजित ढंग से किये गए चरमपंथी हमले में एक जूनियर कमीशंड अधिकारी समेत पांच जवानों की मौत हुई है, वहीं पांच सैनिक घायल भी हुए हैं। बताते हैं आतंकवादियों ने घाटी में मारे गए बड़े आतंकी बुरहान वानी की बरसी पर यह हमला किया है। बहरहाल, कठुआ से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर बदनोटा में हुए घातक हमले ने आतंकियों के दुस्साहस को उजागर किया है। सवाल उठता है कि जब सशस्त्र सैनिक भी आतंकवादियों की जद में आ रहे हैं तो आम नागरिकों के लिये तो यह कितनी बड़ी चुनौती होगी? हालांकि, इस हमले की अभी तक किसी चरमपंथी संगठन ने जिम्मेदारी नहीं ली है, लेकिन आशंका है कि पाक अधिकृत कश्मीर से आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले संगठनों का इस घटना में हाथ हो सकता है। सेना इस इलाके में गहन सर्च अभियान चला रही है, लेकिन अभी घटना के सूत्र हाथ नहीं लगे हैं। दरअसल, घटनास्थल घने जंगलों से घिरा है और कठुआ से काफी दूर है। हाल के दिनों में आतंकवादियों ने जम्मू के इलाकों में आतंकी हमलों को अंजाम दिया है। ग्यारह जून को भी कठुआ के एक गांव में हुई भिड़ंत में दो चरमपंथी तथा सीआरपीएफ का एक जवान मारा गया था।

उल्लेखनीय है कि आठ जुलाई 2016 को सुरक्षाबलों से हुई मुठभेड़ में हिज्बुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की मौत हो गई थी। जिसके बाद घाटी में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। बहरहाल, हाल के दिनों में बढ़ी आतंकवादी घटनाएं चिंता बढ़ाने वाली हैं। दरअसल, केंद्र सरकार दावा करती रही है कि जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद आतंकी हमलों व पत्थरबाजी की घटनाओं में कमी आई है। हालांकि, अच्छी बात यह है कि सोशल मीडिया पर पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पांच जवानों को खोने पर दुख जताया है और घटना की निंदा की है। निस्संदेह, जम्मू-कश्मीर की मौजूदा स्थिति की गंभीर समीक्षा की जरूरत है। उल्लेखनीय है कि केंद्र में नई सरकार के लिये जनादेश आने के कुछ दिन बाद ही नौ जून को जम्मू-कश्मीर के रियासी में श्रद्धालुओं से भरी बस पर हुए चरमपंथियों के हमले में नौ लोग मारे गए थे और बड़ी संख्या में यात्री घायल हुए थे। दरअसल, आतंकियों ने सुनियोजित तरीके से बस के चालक को निशाने पर लिया था और चालक के नियंत्रण खोने के बाद बस खाई में जा गिरी थी। यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी कि केंद्र में भाजपा नीत गठबंधन के तीसरी बार सत्ता में आने के बाद हमलों में तेजी आई है। इसमें दो राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की गतिविधियां सीमा पार से मिलने वाली मदद के बिना संभव नहीं हैं। इसे पाकिस्तान की हताशा भी कहा जा सकता है। यह भी हो सकता है कि पाक हुक्मरान ये भ्रम पाले हों कि पूर्ण बहुमत न पाने के कारण दिल्ली में पहले जैसी सशक्त सरकार नहीं है, जो आतंकवाद का पहले की तरह सख्ती से मुकाबला कर सके। लेकिन पाकिस्तान को भारतीय लोकतंत्र की क्षमता, सक्षम तंत्र और सशक्त सेना की ताकत का अहसास होना चाहिए। लेकिन तय है कि आतंकवाद के इस नये छद्म युद्ध के मुकाबले के लिये केंद्र व सुरक्षा बलों को नये सिरे से रणनीति तैयार करनी होगी। हम अपने जवानों को यूं ही नहीं गवां सकते। फिलहाल पाकिस्तान को भी संदेश देने की जरूरत है कि वह आतंकवादियों को मदद देना बंद करे।

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