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... ताकि सेफ रहे सेब

टैरिफ घटे तो लाखों उत्पादकों पर मार
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दुनिया को नये टैरिफ युद्ध में धकेलने वाले ट्रंप प्रशासन के दबाव की आंच हिमाचल के सेब उत्पादकों तक भी पहुंच रही है। भारत पर सेब आदि उत्पादों पर अमेरिकी टैरिफ घटाने के दबाव ने हिमाचल के सेब उत्पादकों के माथे पर चिंता की लकीरें उकेर दी हैं। वे केंद्र सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि किसी भी कीमत पर अमेरिकी सेब पर टैरिफ कम न किया जाए, अन्यथा लाखों उत्पादकों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ जाएगी। वे तब से फिक्रमंद हैं जब वर्ष 2023 में आयात शुल्क सत्तर फीसदी से घटाकर पचास फीसदी कर दिया गया था। उनको फिक्र है कि यदि फिर टैरिफ में कमी की गई तो भारतीय बाजार अमेरिका के उच्च गुणवत्ता वाले सस्ते सेब से पट जाएगा। जिससे घरेलू सेब उत्पादकों को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। आंकड़े इस गंभीर स्थिति को बयां करते हैं कि वर्ष 2018 में जब टैरिफ बढ़ाए गए तो वर्ष 2022-23 तक अमेरिकी सेब का आयात 1.28 लाख मीट्रिक टन से घटकर सिर्फ 4,486 मीट्रिक टन रह गया था। मौद्रिक संदर्भ में देखें तो यह 145 मिलियन डॉलर से घटकर मात्र 5.27 मिलियन डॉलर रह गया था। सेब उत्पादक इस बात को लेकर चिंतित है कि जब वर्ष 2023 में टैरिफ को फिर से वापस पचास फीसदी पर लाया गया तो आयात में करीब 20 गुना वृद्धि हो गई थी। ऐसे में यदि किसी भी तरह की कमी फिर आयात शुल्क में की जाएगी तो भारतीय बाजार वाशिंगटन सेब से पट जाएंगे। फिर भारतीय प्रीमियम सेब से बहुत कम कीमत पर मिलने के कारण गुणवत्ता का विदेशी सेब उपभोक्ताओं की प्राथमिकता बन जाएगा। खासकर संपन्न तबके की पहली पसंद बन जाएगा। इस चिंता ने घरेलू सेब उत्पादकों की नींद उड़ा दी है। उन्हें डर कि पौष्टिकता व रस की गुणवत्ता में भारतीय सामान्य सेब अमेरिकी सेब का मुकाबला नहीं कर पायेगा। लोगो में आम धारणा रहती है कि विदेशी सेब ज्यादा अच्छा होगा।

बहरहाल, अमेरिकी सेब पर टैरिफ घटाने की आशंका से सात लाख सेब उत्पादकों की आजीविका पर खतरा मंडराने लगा है। इसकी वजह यह भी कि अमेरिकी व्यापार वार्ता में कृषि टैरिफ घटाना मुख्य मुद्दा है। हालांकि, भारत जो उच्च आयात शुल्क लगाता है वह सोयाबीन पर 45 फीसदी, मक्का पर 50 फीसदी और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर 150 फीसदी है। अमेरिकी मांग है कि उसके कृषि निर्यात के लिये अवरोध कम किए जाएं। लेकिन निर्विवाद रूप से व्यापार एकतरफा नहीं हो सकता। अगर भारत को रियायतें देनी ही हैं तो उसे अपने उत्पादों और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के लिये पारस्परिक बाजारों में पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि भारतीय सेब उत्पादक पहले ही सस्ते ईरानी आयातों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे हैं। ईरानी सेब भारतीय बाजार में पचास-साठ रुपये कम कीमत पर उपलब्ध है, जिसकी वजह से गैर-प्रीमियम गुणवत्ता वाले सेबों का लाभकारी मूल्य मिलना बेहद मुश्किल है। स्थानीय सेब उस दर पर आयातित सेबों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, क्योंकि राज्य में उत्पादन व परिवहन लागत ज्यादा है। यह बात जगजाहिर है कि हिमालय के पहाड़ी इलाकों के कारण उच्च उत्पादन लागत से किसान जूझ रहे हैं। जिसमें मशीनीकरण असंभव हो जाता है। इसके विपरीत, अमेरिकी सेब उत्पादक अत्यधिक मशीनीकृत खेती और बड़े पैमाने पर सब्सिडी से लाभान्वित होते हैं। यही असंतुलन भारत में सेब उद्योग को अनियमित आयातों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाता है। भारतीय उत्पादकों के लिये सुरक्षात्मक उपाय किए बिना किसी भी तरह की टैरिफ कटौती पहले से ही संकट में पड़े फल उद्योग को पंगु बना देगी। वहीं दूसरी ओर ‘वोकल फॉर लोकल’ को एक नारे से अधिक व्यवहार में लाना है तो भारत को आंख मूंदकर आयात शुल्क कम करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अपने उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिये उसे अमेरिकी दबाव का प्रतिरोध करना चाहिए। भारतीय हितों को सामने रखकर ही बातचीत को आगे बढ़ाना चाहिए। साथ ही निर्यात के अवसरों का विस्तार करते हुए कमजोर क्षेत्रों के संरक्षण की भी पहल करनी चाहिए। जिसकी मांग हिमाचल के सेब उत्पादक भी कर रहे हैं। यह चुनौती गुणवत्तापूर्ण फल उत्पादन के लिये भी रहेगी।

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