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अविश्वास का बीमा

कारोबार नहीं जनकल्याण हो प्राथमिकता
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जीवन में असुरक्षा, स्वास्थ्य व अपनों के भविष्य की तमाम चिंताओं से मुक्ति के लिये कोई व्यक्ति बीमा का सुरक्षा कवच लेने को बाध्य होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह विश्वास होता है कि ऊंच-नीच के वक्त में यह बीमा मददगार साबित होगा। लेकिन विडंबना यह है कि जिस बीमा क्षेत्र का आधार विश्वास होना चाहिए, उसको लेकर पॉलिसी धारकों में लगातार अविश्वास बना रहता है। बीमा कराने वाले एजेंटों और कंपनियों की ढकी-छिपी शर्तंे उपभोक्ताओं के मन में अकसर संशय के बीज बोती हैं। जब बीमाधारकों को पॉलिसी का लाभ लेने का वक्त आता है तो उन्हें तमाम जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। हाल में आयोजित किए गए सर्वेक्षण ने इस वास्तविकता पर मोहर ही लगायी है। सर्वेक्षण बीमा क्षेत्र की तमाम विसंगतियों को उजागर ही नहीं करता बल्कि एक कठोर वास्तविकता की ओर भी इशारा करता है। सर्वेक्षण का निष्कर्ष है कि बीमा क्षेत्र में व्याप्त तमाम विसंगतियों को दूर करने के लिये लगातार निगरानी करने वाले एक सख्त नियामक तंत्र की अावश्यकता है। सर्वेक्षण के निष्कर्ष कई गंभीर खामियों की ओर इशारा करते हैं। इसके निष्कर्षों के अनुसार भारत के लगभग 65 फीसदी बीमा पॉलिसी धारकों को नहीं पता होता है कि उन्हें पॉलिसी लेने से कौन-कौन से लाभ होते हैं। उन्हें नहीं मालूम कि पॉलिसी से बाहर निकलने की प्रक्रिया कैसी है। यह भी नहीं मालूम कि दावा प्रक्रिया की आवश्यक कार्यवाही को उन्हें कैसे अंजाम देना है। इतना ही नहीं लगभग 60 फीसदी आश्रितों को यह भी नहीं पता कि वे किसी पॉलिसी के अंतर्गत कवर हैं। वे इस बात से अनजान हैं कि उन्हें किस चीज व किस स्थिति में बीमा लाभ मिलेगा। कमोबेेश यह स्थिति तब है जब देश में बीमा उद्योग तेजी से बढ़ रहा है। निस्संदेह, यह समझ की कमी केवल उस शब्दावली से ही नहीं उपजी है जिसे समझना मुश्किल है, बल्कि बीमा करते समय उपभोक्ता को उसकी प्रक्रिया और लाभों का सिर्फ एक पक्ष ही बताया जाता है। कई वास्तविकताएं शब्दजाल में छिपा ली जाती हैं।

निश्चित रूप से बीमा का मूल उद्देश्य तब विफल हो जाता है, जब बीमाकर्ता उपभोक्ताओं को सही ज्ञान और लाभ लेने की वास्तविक प्रक्रिया की जानकारी देने के मूल कर्तव्य में विफल हो जाता है। दरअसल, विभिन्न क्षेत्रों में वित्तीय उत्पादों की गलत बिक्री भी एक प्रमुख चिंता का विषय बनी हुई है। जो कि पहले ही चरण में वित्तीय सुरक्षा के अंतिम लक्ष्य को कमजोर कर देती है। आम धारण बन गई है कि बीमा उद्योग इससे जुड़ी कंपनियों के आर्थिक हितों और जन के हितों के टकराव के रूप में स्थापित है। इसमें जनहित की प्राथमिकता नहीं होती बल्कि कंपनी का मुनाफा कमाने को तरजीह दी जाती है। अपना टारगेट पूरा करने के लिये उपभोक्ताओं को जबरन पॉलिसी चिपकाने वाले एजेंटों से लेकर ऐसे फील्ड अफसरों की लंबी सूची है, जिनकी प्राथमिकता बीमा कंपनी को लाभ पहुंचाने की ही होती है। विशेष रूप से स्वास्थ्य क्षेत्र में रोगी की कीमत पर बीमाकर्ता व अस्पतालों के अपवित्र गठबंधन ने इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठाये हैं। दरअसल, विनियामक नियंत्रण अपर्याप्त पाए गए हैं। इसके अलावा जवाबदेही का घोर अभाव पाया गया है। इसके साथ ही बीमा पॉलिसियों को लेकर पारदर्शिता की भारी कमी पायी जाती है। बीमा पॉलिसी के प्रावधानों और लाभ को लेकर सरलीकृत भाषा की हमेशा कमी महसूस की जाती है। इन मुद्दों को लेकर विभिन्न परिवारों और मित्रों में बीमा कवरेज को लेकर उत्साहजनक चर्चाएं समय की मांग है। वास्तव में जिस चीज को प्राथमिकता दी जाने की जरूरत है, वह है लेन-देन के दृष्टिकोण में बदलाव लाना। निस्संदेह, बीमा महज व्यापारिक लेन-देन मात्र नहीं है। बीमा उत्पादों से मानवीय पक्ष सशक्त रूप में जुड़ा होता है। हर हाल में उपभोक्ता कल्याण को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। बीमा धोखाधड़ी में जोखिम कारक को ध्यान में रखते हुए, जांच पर निर्भर रहना सामान्य बात है। यह किसी भी तरह से दावेदारों पर एक जटिल और परेशान करने वाली प्रणाली का बोझ डालने को उचित नहीं ठहरा सकता। दावों को अस्वीकार करने के बजाय उनका सम्मान करना उद्योग का मानक होना चाहिए।

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