एंटीबायोटिक दुरुपयोग
यह सर्वविदित है कि भारत में डॉक्टरी सलाह तथा बिना परामर्श के एंटीबायोटिक दवाएं लेना आम बात है। यह जानते हुए भी कि लगातार इन दवाओं के सेवन से उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता गहरे तक प्रभावित होती है। एक समय ऐसा आ जाता है कि रोगों पर ये एंटीबायोटिक दवाएं काम करना बंद कर देती हैं। इस चिंता को हाल में हुए एक अध्ययन ने बढ़ाया है। नये अध्ययन ने एक परेशान करने वाली सच्चाई को उजागर किया है, जो बताता है कि भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग के पीछे मरीजों की सोच एक प्रमुख कारक है। अधिकांश लोगों की धारणा है कि इन दवाओं के सेवन से वे स्वत: ही ठीक हो जाएंगे। उन्हें डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं होगी। वहीं दूसरी ओर निजी क्षेत्र के कुछ डॉक्टर भी अक्सर अपने मरीजों को बनाए रखने के लिये ऐसा करते हैं। वास्तव में इस प्रवृत्ति के परिणाम खासे चौंकाने वाले हैं। अध्ययन के मुताबिक भारत में अकेले निजी क्षेत्र में ही सालाना आधे अरब से ज्यादा एंटीबायोटिक दवाएं लिखी जाती हैं। जिनमें बड़ी संख्या में ऐसी दवाइयां होती हैं, जिनकी वास्तव में जरूरत ही नहीं होती। आमतौर पर बच्चों में होने वाले दस्त के मामले में यह दुरुपयोग सबसे ज्यादा है। हालांकि, ज्यादातर मामले वायरल का प्रभाव होते हैं। ऐसी स्थिति में ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्ट और जिंक सकारात्मक परिणाम देते हैं। अध्ययन से पता चला है कि इसके बावजूद 70 फीसदी मामलों में अभी भी एंटीबायोटिक दवाओं से इलाज किया जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि अतार्किक मांग, कड़े कानूनों का अभाव और डॉक्टरों द्वारा जरूरत से ज्यादा दवाइयां लिखने के कारण एंटीबायोटिक दवाइयों पर मरीजों की निर्भरता बढ़ती चली गई है। कालांतर एंटीबायोटिक दवाइयों पर लगातार बढ़ती निर्भरता के चलते एक घातक चक्र का निर्माण होता है। जो मरीज के शरीर में तमाम तरह के साइड इफेक्ट भी पैदा करता है।
वास्तव में इससे बड़ा संकट यह है कि एक समय के बाद ये दवाइयां रोग के खिलाफ काम करना बंद कर देती हैं। कई तरह के रोग बढ़ाने वाले रोगाणु इनके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। बहुत संभव है कि किसी महामारी के वक्त व्यक्ति का शरीर एंटीबायोटिक के इस्तेमाल के बावजूद सुरक्षा कवच न दे। निश्चित रूप से इस संकट से बचने का सरल उपचार यही है कि इसका उपयोग कम से कम किया जाए। सरकारों को भी कानून के जरिये इसका नियमन करना चाहिए। हमें इससे जुड़े आसन्न संकट को महसूस करना चाहिए। यह खतरा मरीज की व्यक्तिगत सुरक्षा से कहीं आगे तक विस्तारित है। गंभीर चिंता का विषय यह है कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध यानी एएमआर दुनिया में सबसे घातक संकटों में से एक के रूप में उभर रहा है। डराने वाला आंकड़ा यह है कि वैश्विक स्तर पर, यह पहले से ही हर साल लगभग 50 लाख मौतों का कारण बनता है। अकेले भारत में, वर्ष 2021 में 2.5 लाख से ज्यादा मौतें सीधे तौर पर एएमआर से जुड़ी थीं और लगभग 10 लाख से ज्यादा मौतें दवा-प्रतिरोधी संक्रमणों से जुड़ी थी। खासतौर पर चिंताजनक तथ्य यह है कि वर्ष 2019 में, गंभीर दवा-प्रतिरोधी जीवाणु संक्रमण वाले केवल 7.8 भारतीयों को ही प्रभावी एंटीबायोटिक्स मिले। जो इस उपचार की एक बड़ी कमी को उजागर करता है। जिसके चलते प्रतिरोधी रोगाणु आसानी से फैलते हैं और एक बार ठीक हो सकने वाले संक्रमणों को घातक बना देते हैं। जिसके चलते सर्जरी, कैंसर के इलाज और नियमित देखभाल को कहीं ज्यादा जोखिमभरा बना देते हैं। निश्चित रूप से इस दिशा में जनजागरण अभियान की जरूरत है कि हर छोटे-मोटे रोग के लिये एंटीबायोटिक दवाइयां लेने की जरूरत नहीं है। जन अभियानों के जरिये एंटीबायोटिक्स से जुड़ी भ्रांतियों को सरकार व सामाजिक स्तर पर दूर करने की जरूरत होगी। इनके अंधाधुंध उपयोग रोकने के लिये कानून से नियमन जरूरी है। साथ ही तर्कसंगत उपचार के लिये किफायती नैदानिक विकल्प व्यापक रूप से उपलब्ध कराने होंगे। साथ ही सरकार सुनिश्चित करे कि जिनको वास्तव में एंटीबायोटिक्स दवाओं की जरूरत है, उन्हें ये समय पर सहज रूप से मिल सकें। अन्यथा प्रतिरोध की यह मौन महामारी अनगिनत लोगों की जान ले लेगी।