बात-बेबात घात
कहना मुश्किल है कि हमारे समाज में ऐसा क्या बदला है कि जिन छोटे-छोटे विवादों को हम आसानी से सुलझा सकते हैं, उनको लेकर जान लेने तक की नौबत आ जाती है। मान्यता रही है कि पढ़ा-लिखा समाज सभ्य-संवेदनशील होकर प्रगतिशील समाज की आधारशिला रखता है। लेकिन यहां तो हम तरक्की के दावों और साक्षरता में अप्रत्याशित वृद्धि के बावजूद आदमयुगीन व्यवहार करने पर उतारू हैं। कार पार्किंग विवाद हो या सड़क पर आगे जाने की होड़ में वाहनों का जरा आपस में छू जाना, अकसर बड़े विवाद व हिंसक संघर्ष का कारण बन जाता है। पिछले दिनों दिल्ली में एक ई-रिक्शा चालक के कार से लग जाने के बाद कार चालक ने रिक्शा वाले को गोली मार दी। अब सवाल यह भी है कि क्यों इस विवाद को आपसी बातचीत से नहीं टाला जा सका? आखिर क्यों कार चालक को हथियार लेकर चलने की जरूरत पड़ी? आखिर लोगों का खून क्यों उबाल ले रहा है? क्या ये हमारे तामसिक व प्रदूषित खान-पान की देन है? क्या हमारे विचार दूषित हुए हैं? क्या हमारे उन संस्कारों का लोप हो चुका है जो हमें सहजता,सहयोग, सरलता, सहनशीलता, सौम्यता और सहभागिता सिखाते थे? अक्सर हम बुजुर्गों के साथ युवाओं द्वारा अभद्र व्यवहार करते हुए देखते हैं। उनकी उम्र व सफेद बालों का भी कोई लिहाज करता नजर नहीं आता है। सवाल उठता है कि क्या हमारी पारिवारिक संरचना व शिक्षण संस्थाओं द्वारा जीवन मूल्य बांटने की कवायद निष्प्रभावी हो गई है? अकसर हम देखते हैं कि सार्वजनिक जीवन में ऐसे मुद्दों को लेकर बड़े विवाद होते हैं, जिन्हें आसानी से सुलझाया जा सकता है। हमारे व्यवहार की ये कृत्रिमता विचलित करने वाली है। कभी कहा जाता था कि गहरी नदी खामोशी से बहती है। लेकिन इसके उलट पढ़े-लिखे लोग अनपढ़ों से बदतर व्यवहार करते नजर आते हैं। वह धारणा निर्मूल साबित हो रही है कि विद्या हमें विनय देती है। क्या हमारा जीवन इतना जटिल हो गया है कि हमें क्षण में आक्रोश से भर देता है?
हाल के वर्षों में राह चलते मामूली विवादों पर हत्या कर देने की विचलित करने वाली वारदातें अकसर खबरों में सुर्खियां बनती रहती हैं। जो एक सभ्य व्यक्ति में भय व असुरक्षा भर देती हैं। हर व्यक्ति के दिमाग में अपनी व बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंता व्याप्त हो जाती है। कहीं छोटी-छोटी बात पर रौब दिखाने पर हत्याएं हो जाती हैं तो कहीं वाहनों को खड़े करने के विवाद में खूनी संघर्ष हो रहे हैं। कहीं न कहीं सड़कों पर होने वाली हिंसा के मूल में बेलगाम होता गुस्सा भी है। यह गुस्सा कब कानून की झीनी दीवार लांघ दे, कहना मुश्किल है। कालांतर यही टकराव गंभीर अपराध के रूप में ही सामने आता है। यहां तक कि यह टकराव कई बार दो संप्रदायों के बीच खूनी संघर्ष तक में तब्दील हो जाता है। ऐसे कई समाचार देश के विभिन्न भागों से हमारे सामने आते रहे हैं। हमारे समाज विज्ञानियों और मनोवैज्ञानिकों को हमारे व्यवहार में घर कर रही इस आक्रामकता के कारणों की गंभीर पड़ताल करनी होगी। भविष्य में यह प्रवृत्ति हमारे समाज के लिये घातक साबित हो सकती है। कहीं न कहीं ये मानवीय मूल्यों व संवेदनशीलता का पराभव भी है जो हम किसी को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। हम विचार करें कि क्या इंटरनेट सामग्री व आक्रामक वीडियो गेम से उपजी आक्रामकता नई पीढ़ी में असर दिखा रही है? फिल्मों और टीवी में दिखाए जाने वाली हिंसा क्या हमारे जीवन व्यवहार में उतर आई है? सूचना माध्यमों ने आम लोगों की संवेदनाओं को आहत करने का जो मुनाफे का जमकर कारोबार किया क्या वो हमें अब संवेदनहीन बना रहा है? देश के राजनीतिक विमर्श में आक्रामकता व संवेदनाओं से खिलवाड़ का जो निर्मम खेल दशकों से खेला जाता रहा है क्या नई पीढ़ी ने उसका अनुकरण शुरू कर दिया? क्या ग्लोबल वार्मिंग व बढ़ते तापमान का असर हमारे आम व्यवहार को आक्रामक बना रहा है? इस दिशा में गंभीर मनोवैज्ञानिक शोध की जरूरत है। हमें सोचना होगा कि सड़कों पर जरा-जरा सी बात पर पनप रहे हिंसक टकराव की विकृति की असल वजह क्या है?