त्रासदी की जवाबदेही
यह खबर विचलित करने वाली है कि दिल्ली में एक सोलह वर्षीय छात्र और जयपुर में एक नौ साल की छात्रा ने स्कूल की असहज स्थितियों के चलते आत्महत्या कर ली है। निस्संदेह, ये आत्महत्या की घटनाएं एक परेशान करने वाली सच्चाई को उजागर करती हैं। भारत के स्कूल, जिनका उद्देश्य बच्चों का पालन-पोषण और सुरक्षा करना है, तेज़ी से ऐसे स्थानों में बदल रहे हैं जहां क्रूरता, उपेक्षा और अनियंत्रित अधिकार बच्चों के जीवन को बर्बाद कर सकते हैं। ये त्रासदियां कोई असामान्य बात नहीं हैं; ये एक असफल व्यवस्था के लक्षण हैं। तीसरी भयावह घटना महाराष्ट्र के वसई की है जहां एक तेरह साल की छात्रा को किसी कारणवश स्कूल देर से पहुंचने पर शिक्षक ने अमानवीय सजा दी। छात्रा को स्कूल बैग के साथ सौ उठक-बैठक लगाने को बाध्य किया गया। यह तथ्य नजरअंदाज करते हुए कि वह एनीमिया से पीड़ित है। छात्रा कुछ देर के बाद बेहोश हो गई और कालांतर में उसकी मौत हो गई। निस्संदेह, एक छात्र व एक छात्रा की आत्महत्या और महाराष्ट्र के वसई में छात्रा की उठक-बैठक लगाने से हुई मौत एक परेशान करने वाली सच्चाई को उजागर करती है। स्कूल जिनका उद्देश्य छात्र-छात्राओं को पालन-पोषण और सुरक्षा करना था, वे बच्चों के जीवन पर संकट की वजह बन रहे हैं। वहां शिक्षकों की संवेदनहीनता, उपेक्षा और सख्त व्यवहार कई बच्चों का जीवन बर्बाद कर सकते हैं। ये त्रासदियां असामान्य बात नहीं, ये हमारी शिक्षा व्यवस्था की असफलता की कहानी कहती है। दिल्ली में, मेट्रो स्टेशन से छलांग लगाने वाले किशोर ने अपने शिक्षकों के हाथों अपमान का हृदय विदारक वर्णन करते हुए एक पत्र छोड़ा है। उसके माता-पिता ने छात्र के उत्पीड़न का आरोप शिक्षकों पर लगाया है। उनका आरोप है कि उसे छोटी-छोटी बात पर डांटा गया, निष्कासन की धमकी दी गई और सहपाठियों के सामने मजाक उड़ाया गया।
आत्महत्या करने वाले छात्र के अभिभावकों द्वारा प्राथमिकी में बताया गया कि छात्र ने मन में आने वाले आत्महत्या के विचार से काउंसलर को अवगत कराया था। लेकिन शिक्षकों ने न तो माता-पिता को सूचित किया और न ही उसे इस दिशा में सोचने से रोकने के लिये कोई सलाह दी गई। निश्चित रूप से जब कोई छात्र अपनी किसी गंभीर समस्या का जिक्र करता है तो ऐसे में उदासीनता हिंसा का एक रूप ही कही जाएगी। वहीं दूसरी ओर जयपुर में नौ वर्षीय छात्रा की मौत के मामले में सीबीएसई की जांच में संस्थागत उदासीनता का आरोप लगाया है। बताया जाता है कि पिछले 18 महीने से छात्रा अन्य छात्राओं द्वारा परेशान की जा रही थी। जिस दिन छात्रा ने आत्महत्या की, उस दिन वह अपनी सहपाठियों द्वारा लिखी गई, अश्लील सामग्री से स्पष्ट रूप से व्यथित होकर 45 मिनट में पांच बार अपनी शिक्षिका के पास शिकायत लेकर गई थी। शिक्षिका ने उसकी दलीलों को खारिज कर दिया और उलटा उसे ही डांटा। निश्चित रूप से शिक्षिका ने छात्रा की देखभाल के अपने कर्तव्य का उल्लंघन किया। कमोबेश वसई की घटना भी शिक्षक की घोर संवेदनहीनता को ही दर्शाती है, जिसने एनीमिया से पीड़ित छात्रा से बैग के साथ सौ उठक-बैठक लगवाई। हालांकि, शिक्षक को गैर-इरादतन हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन छात्रा का जीवन वापस नहीं लौटाया जा सकता। निश्चित रूप से तीन राज्यों में तीन विद्यार्थियों की मौत हमारी संवेदनहीन व्यवस्था को ही दर्शाती है। दरअसल, आज स्कूल में बच्चों की सुरक्षा के लिये कारगर कानून के अलावा भावनात्मक संकट की रिपोर्टिंग अनिवार्य करने की जरूरत है। स्कूलों में प्रशिक्षित परामर्शदाता होने चाहिए। साथ ही किसी बच्चे के भावनात्मक व शारीरिक शोषण रोकने के लिये सख्त दंड की व्यवस्था भी होनी चाहिए। ताकि भविष्य में किसी संभावना का यूं दुखद अंत न हो। इक्कीसवीं सदी के बच्चे नये दौर में नये सपनों की उड़ान लिए हुए हैं, वे अपनी अस्मिता व सम्मान के प्रति बेहद संवेदनशील हैं। एकाकी परिवार में वे मां-बाप के लाड-प्यार से पलते हैं। जब भी उनके अहम को ठेस लगती है वे असहज हो जाते हैं। ऐसे में शिक्षकों का सतर्क व संवेदनशील व्यवहार जरूरी है।
