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हम जी रहे हैं किसी और की लिखी जिंदगी

इंटरव्यू : सीमा कपूर
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पिछले चार दशकों में टीवी धारावाहिक ‘किले का रहस्य’ से लेकर ‘अवंतिका’ के निर्देशन के बीच सृजन के बहुआयामी पक्षों से जुड़ी रही हैं सीमा कपूर। दूरदर्शन व निजी चैनलों में पटकथा सृजनकार सीमा कपूर एक सधी हुई लेखिका व कवयित्री भी हैं। आजकल वे अपनी नई फिल्म बनाने में व्यस्त हैं। सीमा कपूर का दूसरा व तीसरा परिचय यह भी है कि वे बहुआयामी अभिनेता ओमपुरी की पत्नी और मशहूर अभिनेता अन्नू कपूर की बहन हैं। पिछले दिनों प्रकाशित उनकी आत्मकथा ‘यूं गुज़री है अब तलक’ सुर्खियों में है, जिसमें उन्होंने जीवन के नितांत निजी पन्ने ईमानदारी से खोले हैं। पति स्व. ओमपुरी के बारे में खुलकर लिखा है। सीमा कपूर से हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश :

फिल्म-टीवी से जुड़े लोगों की अभिव्यक्ति में खासी कृत्रिमता होती है। आपने बहुत ईमानदारी व बेबाकी से लिखा। आत्मकथा में लोग ईमानदारी से दूसरों के बारे में सम्मति नहीं देते। ये सहजता-सरलता कैसे संभव हुई?

सहजता-सरलता मुझे विरासत में मिली है। मेरे माता-पिता भी सहज-सरल रहे, वो असर आया है। मेरा जीवन दर्शन है कि इंसान बहुत पैसा कमा व नाम कमा ले- ये सब बाहरी चीजें हैं। जो चीज बाहर से आती है, वो छीनी जा सकती है। उसका क्या गुमान। ये सोचकर सरलता आती है कि जो पाया वो यहीं रह जाना है।

आत्मकथा ‘यूं गुज़री है अब तलक’ की भाषा बेहद सरल है व पाठकों को जोड़ती है। आपकी हिंदी इतनी समृद्ध कैसे हुई?

मैंने मध्यप्रदेश, राजस्थान व यूपी में शिक्षा हासिल की। मां शायरा थीं, अकसर कवि सम्मेलनों ,मुशायरों में जाती थीं। हिंदी घर में बोलचाल में सहज ही थी। मैंने खूब हिंदी साहित्य पढ़ा। दरअसल, भाषा लेखन में भी वैसी ही होनी चाहिए, जैसे आपसे बात कर रही हूं। हमारी बोली मीठी होती है और भाषा सख्त। मैं कोशिश करती हूं कि बोली लिखूं। जो सहजता से आप समझ सकें और मैं सहजता से कह सकूं।

लेकिन मूलरूप से आपके कर्नल दादा, पिता-मां अविभाजित पाकिस्तान के उर्दू भाषी इलाके से आते हैं, लेकिन भाषा में उर्दू का प्रभाव उतना नहीं है?

दरअसल, बचपन में खूब साहित्य पढ़ा। मां ने पहले बच्चों का बाल साहित्य दिया। भारतीय व आंचलिक साहित्य, वैश्विक साहित्य, खासकर रशियन, उनका अनुवाद बहुत अच्छा था। बड़े लोगों, रघुवीर सहाय जैसे लोगों ने अनुवाद किया, तो भाषा समृद्ध हुई।

आपके जीवन संघर्ष में साहित्य की क्या भूमिका रही?

शुरू में जरूर रही। बड़ा मुश्किल समय था , इतने बड़े समृद्ध परिवार को गरीबी का घर देखना। दरअसल, जो रंक होता उसकी गरीबी त्रासदी होती है। लेकिन जो राजा से रंक होता है तो दुनिया में उसका दुख ज्यादा होता है। कोई नेत्रहीन पैदा हो, उसका दुख कम है, लेकिन जो दुनिया देखने के बाद नेत्र ज्योति खोता है, उसका दुख बड़ा है। लेकिन समृद्ध विरासत गंवाने के बाद भी माता-पिता ने शिकायत नहीं की। ऊपर वाले ने जैसा जीवन दिया, उसे स्वीकार किया। कभी दंभ नहीं भऱा कि हम ये थे। हमारे पास गाड़ी-बंगले थे।

क्या वजह थी कि सेना के कर्नल के बेटे, आपके पिता थियेटर की तरफ मुड़े?

वाकई, हमारे ददिहाल में कोई साहित्य की बैकग्राउंड नहीं रही। लेकिन पिता साहित्य अनुरागी थे। हम ज़ौक़, गालिब व मीर को उनसे सुनते थे। विश्व का साहित्य उन्होंने खूब पढ़ा। खासकर विक्टर ह्यूगो को। नॉवल हमें पढ़कर सुनाया करते थे। उनका थियेटर को जीवन का लक्ष्य बनाना चौंकाने वाला जरूर था।

आपकी मां कमल कपूर नहीं चाहती थीं कि आप लोग थियेटर, फिल्म-टीवी से जुड़ें?

दरअसल, जिस दौर में पिता ने थियेटर कंपनी बनायी, उस दौर में इसे समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। उन्होंने समाज की उपेक्षा को झेला। पिता जब रात के दो बजे शो के बाद लौटते तो कहा जाता नाचने-गाने वाले लोग हैं। वे इस वजह से डरती थीं...समाज की उपेक्षा व हेय दृष्टिकोण। हम सब भाई-बहन इंटेलिजेंट थे, वे चाहती थीं कि हम आईएएस-पीसीएस में निकलें। मेरा मानना है कि हमारी जिंदगी किसी के द्वारा लिखी गई है। हम इसे दोहरा रहे हैं। मैं सोचती हूं कि जीवन के दो छोर हैं। एक पैदा होना और एक मरना। ये दोनों चीजें आपके हाथ में नहीं होती। फिर ये मुगालता क्यों कि इसके बीच का जीवन हम अपने हिसाब से चलाएंगे। विधाता ने ही सब लिखा है।

आप नियमित योग-ध्यान करती हैं। कैसे शुरू हुआ ये?

मैं तो जीवन में नास्तिक जैसी थी। लेकिन जब पुरी साहब से अलगाव हुआ तो मैं परिस्थितिवश ईश्वर की शरण में पहुंची। शायद 1993-94 का वाकया है, जोधपुर जा रही थी उदयपुर से। घने जंगल में एक रास्ता पहाड़ी से उतरता है। मैं अकेली थी, रास्ते में ड्राइवर से रुकने को कहा। वहां एक तरफ पहाड़ व नीचे खाई थी। मैं खाई पर सिरे पर खड़ी थी। नीचे एक झरना था। तभी एक जोर से घूंसा जैसा अंदर लगा। किसी ने कहा- तुझे लगता ये अपने आप हुआ है? उसके साथ ही शरीर में झुरझुरी, करंट जैसा मुझे लगा। लगा किसी से घिरी हुई हूं। उस दिन से ईश्वर का अहसास हुआ जो बरकरार है। जब भी मुझे लगता है कि मैं उदास होती तो मन में आता है नास्तिक कहां हूं, तू ही तो साथ मेरे। बाद में पता चला कि ये रणकपुर जैनियों का तीर्थ स्थल रहा है। बाद में ओशो को पढ़ने लगी। तो कथन सामने आया कि जब आप अंदर से खाली हों, आसपास की ऊर्जा समा जाती है।

दुनियावी चतुरता से मुक्त सहजता-सरलता का जीवन पिता से मिला? लेकिन आत्मकथा में मां का ज्यादा जिक्र है?

मेरे माता-पिता दोनों ही मेरे आदर्श रहे हैं। उनके पदचिन्हों पर चलने की कोशिश की। दोनों को करीब पाती हूं। लेकिन मां स्त्री होने के नाते ज्यादा करीब रही। मां का संघर्ष दुहरा-तिहरा रहा। युवा अवस्था में अकेले संघर्ष करते हुए महसूस किया कि उनका संघर्ष कितना बड़ा था। युवा अवस्था में अकेले होते हुए आदर्श व मर्यादा सिद्धांतों पर चलना कितना बड़ा संघर्ष है। बिना समझौते के पुरुषों के बीच काम करना। कम्प्रोमाइज नहीं किया तो लड़ाई बड़ी हो जाती है। जब युवा हुई तो मां को समझा कि उनका कितना बड़ा संघर्ष है। वे सौंदर्य व योग्यता में मेरे से आगे थीं।

वे मंच की चर्चित कवयित्री थी, उनकी रचनाओं का कोई संग्रह आया?

एक किताब छपवायी थी- गजलों का संग्रह- ‘बंद दरवाजों की दस्तक।’

आपको कवि नीरज ने बहुत प्रभावित किया?

मैं दस साल की थी। नीरज जी के सम्मान में जावरा में कवि सम्मेलन था ‘नीरज निशा’। कवयित्री के रूप में मां भी शामिल थी। उन दिनों बहुत संकोची थी। एक अप्रिय घटना की वजह से आत्मविश्वास की कमी थी। लोग नीरज जी को घेरे थे, वे हीरो की तरह चल रहे थे। मां ने परिचय कराया- ये मेरी बेटी है। उन्होंने सिर पर हाथ रखा। कहा- ‘सीमा वैरी गुड’। मैंने कहा- मैं वैरी गुड हूं। उन्होंने कहा- हां। इतने बड़े आदमी ने ये कहा, मुझ में एक आत्मविश्वास आ गया।

वर्ष 2012 में नीरज जी पर सूचना विभाग की डॉक्यूमेंट्री बनाने का प्रस्ताव मिला। मुझे उनमें बाबूजी की झलक आती थी। वे प्रेम से हालचाल पूछते। एक बार फोन किया- लखनऊ आ रही हूं, मुलाकात हो सकती है। उन्होंने कहा- मैं अलीगढ़ में हूं, आंख का ऑप्रेशन हुआ है। मैं आ जाऊंगा। वे आंख में पट्टी बांधे लखनऊ आ गये। वे बार-बार शैलेंद्र के गीत सुन रहे थे। दूसरे कवि के लिये कितनी ईमानदारी थी। नई क्रांतिकारी सोच के कवि थे, नब्बे के बाद भी अपडेट रहते थे।

आपने धारावाहिक ‘किले का रहस्य’ से ‘अवंतिका’ तक निर्देशन किया। क्या ‘सांझी’ फिल्म में भूमिका भी निभायी?

सांझी फिल्म करना तो पुरी जी का मजाक था। रोहतक में फिल्म की शूटिंग हो रही थी। मुझे डायलॉग बोलना था। भूमि पेडनेकर की मां सुमित्रा प्रोड्यूसर व हीरोइन थीं। मैंने कर दिया। साल 2012-13 की बात है है- पुरी जी मजाक में एक पोस्टर बना लाए। कहने लगे अपने पास पैसे नहीं हैं। बुढ़ापा कैसे कटेगा। मैंने कहा, मैं तो काम कर रही हूं। कहने लगे आज इलाज कितना महंगा हो गया है। तुम्हारी अध्यात्म में जानकारी है, तुमने वेद-उपनिषद पढ़े हैं। तुम प्रवचन देने लगो। करोड़पति शिष्य लेकर आऊंगा। एक साधु के शरीर पर मेरा फेस मढ़वा लिया। कहा ये है- मां ठिगनी। मेरी हाइट ज्यादा नहीं है। मजाक किया। मैंने कहा- संगीत व भगवान से मैं कमाई नहीं कर सकती।

आप और ओमपुरी जी ग्यारह साल संपर्क में रहे। डेढ़ साल विवाह में रहे। फिर अलगाव और आने वाली संतान को खोना बहुत बड़ा कष्टदायक था। आप उस कष्ट से कैसे उबरीं?

पहला संबल मां थी। दूसरा संबल था- ईश्वर से मिला साहस। जब आपकी गलती नहीं होती तो ईश्वर के सामने आंख मिलाकर बात कर सकते हैं। तू जान तेरी लीला। मेरे पास फाइनेंशली कुछ नहीं था। बस रोटी की कमाई। अन्नू भाई का स्ट्रगल का समय था। सोचा, मैं किसी पर बोझ न बनूं। ताकि वे अपनी आर्थिक स्थिति से जूझते हुए अपना सब छोड़कर मुझे भरने लग जाएं। मैंने सारी ऊर्जा डाइवर्ट कर दी। दुख को जीवन की लड़ाई में बदल दिया।

आप पूरी आत्मकथा में कहीं पुरी जी के प्रति नकारात्मक नहीं रहीं। इतना सब-कुछ होने के बाद भी सकारात्मकता का भाव। आपके मन में विश्वास था कि आपके जीवन में पुरी जी का दोबारा आना ईमानदार प्रयास था?

नाउम्मीद कभी नहीं थी। एक भरोसे को जी रही थी। मैं पुराने जमाने की महिला हूं। एक व्यक्ति को प्रेम किया। सामाजिक रूप से स्वीकार किया। उस व्यक्ति की तरह जैसे जब मां-बाप से कुछ गलत हो जाता है तो संबंध खत्म नहीं किया जाता। मेरी बाउंडिंग पुरी साहब से कम नहीं हुई थी। लिव-इन वालों की नजर में गलत रही। मैं चाहती तो अलगाव के दौरान वित्तीय रूप से सक्षम हो सकती थी। मैंने मजबूरी में घर छोड़ा। कानूनी तौर पर नहीं निकाल सकते थे। मैंने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिये घर छोड़ा। पैसा- प्रॉपर्टी चाहिए होता तो उस घर को नहीं छोड़ती। घर स्त्री का होता है। मुझे कुछ बाहरी चीजों से मोह नहीं था। सम्मान में कमी लगी तो चली आई। फिर प्रेम व उनकी मजबूरी थी तो वापस आ गई। मेरे अहसासों में वात्सल्य भी था, ममता भी थी , मैत्री और प्यार भी। ये सब चीजें मैं भुला नहीं सकती थी। मैं अकेली रही लेकिन शादी भी नहीं की।

आपका सात्विक जीवन,व्यापक अध्ययन, सकारात्मक दृष्टिकोण तथा पुरी जी का खिलंदड़पन व अराजक जीवन। इस रिश्ते में क्या था, जिसने आप को प्रभावित किया?

निस्संदेह, अऱाजक जीवन रहा। उनकी शराब की लत मुझ में जुगुप्सा जगाती थी। व्यक्ति यदि अपने व्यक्तित्व व शरीर पर नियंत्रण न रख सके, तो क्या फायदा। इसीलिए हर घर में शराब को बैन किया गया। आप आपे में नहीं रहते। जब हम मेडिटेशन करते हैं तो अपने मन के राजा होते हैं। कोई भी नशा ये सब चीजें छीन लेता है। मैंने पूरी कोशिश की कि वे दुबारा शराब न पीएं। वैसे भी शराब स्वास्थ्य के लिये अच्छी नहीं। दरअसल, पुरी साहब की एक बड़ी समस्या थी। वे निजी जीवन में सटीक निर्णय नहीं ले पाते थे। जब एक्टिंग करते किसी की राय नहीं लेते। उनकी दृष्टि पाक-साफ होती शीशे की तरह। फिल्म में चरित्र के जीवन के जितने भी आयाम होते, उम्दा तरीके से निभाते। लेकिन निजी जीवन में वे सही निर्णय नहीं ले पाते थे।

पुरी जी के जीवन की शुरुआत में परिस्थितियां बेहद विषम रहीं। क्या उसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ा?

हमारा बचपन भी गुरबत और मुश्किलों के बीच गुजरा। आप उससे लड़कर मजबूती से आगे बढ़ सकते हैं। दरअसल, वे व्यावहारिक नहीं थे। निर्णय ले नहीं पाते थे।

पुरी जी आप से लगातार माफी मांगते रहे, आप ने दिल से माफ किया?

माफ किया तभी तो स्वीकार किया। मैंने दिल से उन्हें कभी निकाला ही नहीं। श्राद्धों में याद किया कि वे जहां भी हों, ईश्वर उन्हें खुश रखे।

अभी नया क्या कर रही हैं?

एक फिल्म बना रही हूं। फिल्म महिलाओं से जुड़े मुद्दे पर केंद्रित है- ‘पतंग मसाला’। कथावस्तु नहीं बताऊंगी, नहीं तो उस विषय पर छह फिल्में बन जाएंगी। बहरहाल, एक स्त्री की जद्दोजहद है परिवार में, बिना परिवार को तोड़े। मैं उस तरह के सिनेमा से प्रभावित नहीं कि हर जगह पुरुष ने गलती की। पुरुष ने गलती की और पत्नी छोड़कर चली गई। ये व्यावहारिक समाधान नहीं है। तलाक की बजाय पुरुष की सोच बदलनी चाहिए। परिवार नहीं टूटना चाहिए।

आपमें जीवों के प्रति करुणा का विशिष्ट गुण है। आपने कुत्ते के बच्चे सखी, कौवे राजा का जिक्र किया। एक गिलहरी भी पाली है? 

दरअसल, मैंने गिलहरी को बिल्ली के मुंह से निकाला था। तब उसकी आंख भी नहीं खुली थी। हमने उसका नाम रखा चंदू चैंपियन। बड़ी होने पर पता चला कि फीमेल है। फिर भी उसका नाम चंदू रखा। अब परिवार का हिस्सा बन गई है।

आप अतिसंवेदनशील हैं। क्या अति संवेदनशील लोगों को समाज में कष्ट झेलने पड़ते हैं?

बहुत होता है। क्या होता है कि सांसारिक लोग इसे कमजोरी समझने लगते हैं।

आपने पुस्तक के उपसंहार में लिखा कि मैं नन्ही गुड्डो का जीवन जी रही हूं?

मैं हर एक दिन को खुश होकर जीना चाहती हूं। ईश्वर ने जीवन दिया है। भगवान कृष्ण ने जीवन को उत्सव की तरह जीने के लिये कहा है। जीवन के सुख-दुख को स्वीकार कर समभाव से जीवन जीना चाहिए। इसे पूरी तरह इंजॉय कीजिए।

 

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