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स्त्रियों को शास्त्रकार बनाने हेतु विनोबा भावे का संकल्प

1951 में भूदान यज्ञ कार्य शुरू हुआ। विनाेबा जी की पदयात्राओं में देशभर से बहुत महिलाएं शामिल हुईं। 1960 में असम में विनोबा की पदयात्रा डेढ़ साल चली। वहां भूदान, ग्रामदान का मुख्य काम स्त्री शक्ति के आधार से...
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1951 में भूदान यज्ञ कार्य शुरू हुआ। विनाेबा जी की पदयात्राओं में देशभर से बहुत महिलाएं शामिल हुईं। 1960 में असम में विनोबा की पदयात्रा डेढ़ साल चली। वहां भूदान, ग्रामदान का मुख्य काम स्त्री शक्ति के आधार से चला। पवनार आश्रम के संचालक गौतम बजाज के मुताबिक, विनोबा मानते थे कि बहनों के लिए शास्त्रकार होना और ब्रह्म विद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ना जरूरी है।

महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित पवनार आश्रम यानी ब्रह्म विद्या मंदिर भूदान आंदोलन से जुड़ा है। इसे विनोबा भावे ने उन महिलाओं के लिए स्थापित किया था, जो आध्यात्मिक जीवन जीना चाहती थीं। पवनार आश्रम में ब्रह्म विद्या मंदिर की साल 1959 में शुरुआत हुईं। करीब एक दशक विनोबा पदयात्राओं में रहे। वे साल 1970 में फिर पवनार आश्रम आ गये व अंतिम समय तक यहीं रहे। पवनार आश्रम में व लंबी यात्राओं के दौरान विनोबा के सान्निध्य में रहे थे गौतम बजाज। जिन्होंने अपना जीवन विनोबा भावे के विचारों को समर्पित कर दिया है। वही अब पवनार आश्रम के संचालक हैं। ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना व विनोबा की यात्राओं को लेकर गौतम बजाज से कृपाशंकर चौबे की बातचीत।

पवनार आश्रम (ब्रह्म विद्या मंदिर) की स्थापना के उद्देश्य

पवनार आश्रम यानी ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना व मकसद के बारे में गौतम बजाज ने बताया कि विनोबा जी का यह आश्रम तो 1938 से ही शुरू हो चुका था। विनोबा जी 1938 में यहां रहने के लिए आए। उन्होंने 1951 में भूदान यज्ञ का कार्य शुरू किया। उनकी पदयात्राएं देश भर में हुईं। उस यज्ञ में बहुत सी बहनें अपना कॉलेज, कैरियर, नौकरी सब छोड़कर शामिल हुईं। केरल से लेकर असम तक की बहनें इसमें साथ आयीं। विनोबा जी एक बात बार-बार कहते थे कि अब बहनों को भी ब्रह्म विद्या के क्षेत्र में आगे आना चाहिए। हमारे यहां बहुत संत बहनें हुई हैं। मीराबाई हैं, आंडाल हैं, ऐसे कई नाम हैं। विनोबा जी मानते थे कि बहनों के लिए शास्त्रकार होना और ब्रह्म विद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ना बहुत जरूरी है। नहीं तो हमारे शास्त्र एकांगी रह जाएंगे। उनका यह भी कहना था कि हमको जो भी काम करना है- चाहे ग्राम सेवा का काम हो, खादी का काम या रुग्ण सेवा का- इन सब कामों के पीछे हमारी आध्यात्मिक निष्ठा होनी चाहिए। उसके बिना ये सारे अच्छे काम शून्यवत हो जाएंगे। इसलिए बहनों को आगे आना चाहिए। कई बहनें विनोबा जी से मिलती रहीं जिनको ब्रह्म विद्या की लालसा थी। विनोबा जी ने कहा कि ब्रह्म विद्या मंदिर में वे बहनें ही आएंगी जिनमें ब्रह्म विद्या की उपासना की इच्छा और सामाजिक क्रांति की भी तमन्ना हो। ऐसी कई बहनें जब तैयार हुईं तब विनोबा जी की पदयात्रा चल रही थी। राजस्थान के सीकर जिले के गांव काशी का बास जो जमुनालाल बजाज का जन्म स्थान है, वहां वर्ष 1959 में विनोबा जी ने ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना की घोषणा की।

ब्रह्मविद्या मंदिर की शुरुआत और उत्तर की यात्राएं

गौतम बजाज ब्रह्मविद्या मंदिर के आरंभ के बारे में बताते हैं कि ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना की घोषणा के उपरांत विनोबा जी की प्रेरणा से जो बहनें ब्रह्मविद्या के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती थीं, वे अलग-अलग प्रांतों में पवनार आईं। कुछ बहनें कर्नाटक, कुछ बंगाल व कुछ गुजरात से तो कुछ केरल से थीं। दरअसल 25 मार्च 1959 को ब्रह्मविद्या मंदिर का स्थापना दिवस माना जाता है। इसी दिन विनोबा जी ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ कह कर यह घर छोड़ कर निकल पड़े थे। बहनें जब यहां आईं तब विनोबा जी यहां नहीं थे। विनोबा जी से पत्र व्यवहार द्वारा बहनें मार्गदर्शन लेती रहीं। कुछ बहनें कभी-कभी उनको यात्रा में मिलने जाती थीं। वहां बात होती थी। तब राजस्थान के बाद पंजाब व फिर जम्मू कश्मीर में विनोबा जी की यात्रा चली। इसके बाद उत्तर प्रदेश होते हुए वे 1960 में चंबल क्षेत्र में भी पहुंचे। वहां से यात्रा करके विनोबा जी इंदौर गए और फिर इंदौर से वे असम की तरफ निकले। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार व उत्तर बंगाल होते हुए उन्होंने असम में प्रवेश किया।

असम में विनोबा जी का लंबा सफर

असम में विनोबा जी की पदयात्रा अन्य क्षेत्रों के बजाय कुछ ज्यादा दिन क्यों चली, इस संबंध में पूछने पर गौतम बजाज का उत्तर था-असम में विनोबा जी की पदयात्रा डेढ़ साल चली। ब्रह्मपुत्र के उत्तर से भी ब्रह्मपुत्र के दक्षिण में भी दोनों तरफ से उन्होंने पूरे असम की पदयात्रा की और वहां यह भूदान, ग्रामदान ये सब काम खूब चला। वहां पर मुख्य काम स्त्री शक्ति के आधार से चला। असम में ब्रह्मचारिणी बहनों की बहुत तादाद थी और वहां गांधी जी ने बनाया हुआ कस्तूरबा ट्रस्ट था। उसको भी वे बहनें ही संभालती थीं। इनकी अगुवा अमल प्रभा दास थीं। उन्होंने सारी यात्रा का संचालन किया और लोगों ने भी पूरी मदद की।

गौतम समूची यात्रा में रहे साथ

सवाल भूदान, ग्रामदान की यात्राओं का आया तो बजाज ने स्पष्ट किया- मुझे मौका मिला यात्रा में साथ रहने का। विनोबा जी बीच-बीच में दूसरे काम से भी भेजते थे। जैसे उनकी किताब कोई छपनी हो तो कभी काशी भेज दिया, कभी असम में था तो गुवाहाटी। कभी-कभी हमारे सर्वोदय के ज्येष्ठ और वृद्ध व्यक्ति भी आते थे। जैसे दादा धर्माधिकारी आए थे तो उनके साथ कोई नहीं था। तो मुझे बुलाया कि इनकी सेवा में जाओ। विनोबा जी का कहना था कि सेवा करते-करते जो ज्ञान प्राप्त होगा, होगा। कहीं कोई चीज सिखानी हो उसके लिए भी भेजते। तो मैं विनोबा जी की समूची पदयात्रा में साथ रहा। 1964 में यहां पवनार आए। यहां एक साल वे रहे। थोड़े दिनों के लिए आये थे लेकिन स्वास्थ्य कारणों से एक साल के लिए यात्रा यहां रुक गई थी। उस समय आश्रम का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन भी किया।

बिहार में अंतिम वाहन यात्रा

गौतम बजाज के मुताबिक, बिहार से जयप्रकाश नारायण आए और विनोबा जी से बिहार चलने का आग्रह किया तो उन्होंने यहां से वाहन यात्रा शुरू की व 1965 में बिहार की तरफ गए। मधुबनी, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, छपरा, सिवान, बोधगया, रांची कई-कई दिन या महीने रहे। साल 1969 में खान अब्दुल गफ्फार खान सेवाग्राम आश्रम भी आनेवाले थे तो विनोबा जी भी सेवाग्राम आए व कुछ दिन रुके। फिर वर्धा के गीताई मंदिर में कुछ दिन रुके और फिर पवनार आ गए जून 1970 में। फिर क्षेत्र संन्यास लेने के बाद विनोबाजी 15 नवंबर 1982 को निर्वाण तक यहीं रहे।

- लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं।

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