रूपहले पर्दे पर विवाह के विविध रंग
बॉलीवुड की अनेक फिल्मों की कहानियों के केंद्र में शादी को रखा गया। बेशक वक्त के साथ शादियों की कहानियों के मुद्दे बदलते रहे लेकिन रिश्ता तय होना, सगाई, बारात का जाना, जूते चुराई , विदाई आदि ज्यादातर फिल्मों...
बॉलीवुड की अनेक फिल्मों की कहानियों के केंद्र में शादी को रखा गया। बेशक वक्त के साथ शादियों की कहानियों के मुद्दे बदलते रहे लेकिन रिश्ता तय होना, सगाई, बारात का जाना, जूते चुराई , विदाई आदि ज्यादातर फिल्मों में एक जैसे हैं। दूल्हा-दुल्हन की पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर बाधाएं भी ऐसी फिल्मों में खूब दशाई गयीं।
भारतीय समाज में जितना अधिक महत्व शादी को दिया जाता है उतना संभवत: किसी अन्य चीज़ को नहीं दिया जाता है। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि बॉलीवुड की बेशुमार फिल्मों की कहानियों के केंद्र में शादी को रखा गया, चाहे वह परम्परागत अरेंज मैरिज हो, प्रेम विवाह हो, भागकर की गई शादी हो, अमीर व गरीब के बीच शादी हो, अंतर-जातीय या अंतर-धार्मिक विवाह हो या दो अलग-अलग संस्कृति अथवा भाषा से संबंधित लोगों की शादी हो । शादी का सीजन है, तो क्यों न इस विषय की कुछ कालजयी फिल्मों को याद कर लिया जाये।
ऑरेंज मैरिज की कहानी : ‘हम आपके हैं कौन’
‘हम आपके हैं कौन’ (1994) के केंद्र में यूं तो प्रेम (सलमान खान) व निशा (माधुरी दीक्षित) की लव स्टोरी, अपने परिवार के लिए त्याग है, लेकिन यह वास्तव में उत्तर भारतीय अभिभावकों द्वारा तय किये गये परम्परागत हिन्दू विवाह का तैयार किया गया शादी का वीडियो है। इसमें दो दोस्त जब बहुत दिनों बाद मिलते हैं, तो आपस में अपने बच्चों की शादी कराने का निश्चय करते हैं और फिर एक परम्परागत विवाह का सिलसिला आरंभ हो जाता है। लड़के-लड़की की मुलाक़ात करायी जाती है। वे एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं, सगाई होती है और बाद में लड़के वाले बारात लेकर जाते हैं। दूल्हे के जूते चुरा लिए जाते हैं। ज़ाहिर है सालियों द्वारा और ‘जूते लेलो, पैसे दे दो’ गाने से यह बताया जाता है कि कैसे जूते चुराई भी उत्तर भारत में शादी की महत्वपूर्ण व आवश्यक रस्मों में शामिल है। फेरों के बाद दुल्हन को ख़ुशी के आंसुओं के साथ विदा कर दिया जाता है। हालांकि ‘हम आपके हैं कौन’ में तो कोई विदाई गीत नहीं था, लेकिन अनेक हिंदी फिल्मों में विदाई के यादगार गीत हैं, जैसे ‘छोड़ बाबुल का घर मोहे पी के नगर आज जाना पड़ा’ (बाबुल), ‘खुशी खुशी कर दो बिदा कि रानी बेटी राज करेगी’ (अनोखी रात), ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ (नील कमल) आदि। दिलचस्प यह है कि उत्तर भारत में परम्परागत हिन्दू विवाह और परम्परागत मुस्लिम विवाह में कोई विशेष अंतर नहीं है, बस यह कि फेरों की जगह निकाह पढ़वा दिया जाता है, वर्ना मां-बाप द्वारा रिश्ता तय करना, सगाई, बारात का जाना, जूते चुराई , विदाई आदि सब एक सा है। इस सबको भी ‘बहू बेगम’, ‘मेरे हुज़ूर’, ‘मेरे महबूब’ आदि फिल्मों में देखा जा सकता है।
विवाह का जीवंत फिल्मांकन : ‘मानसून वेडिंग’
मीरा नायर ने अपनी 2001 की फिल्म ‘मानसून वेडिंग’ को दिल्ली के एक पंजाबी परिवार के माहौल में सेट किया है। ललित वर्मा व उनकी पत्नी पम्मी ने अपनी बेटी की शादी एक एनआरआई से तय की है। जैसा कि भारतीय समाज में अक्सर होता है, इस प्रकार के विवाह में, पूरा विस्तृत परिवार दुनियाभर से आकर एक जगह एकत्र हो जाता है और अपने साथ अपना भावनात्मक अतीत भी लेकर आता है। शादी की तैयारियों के बीच चुगलियां, राजनीति, साज़िशें, हंसी मज़ाक आदि सब कुछ चल रहा होता है और नये प्रेम समीकरण भी विकसित होते हैं। यह शादी हर किसी को अपने ही परिवार की सी शादी लगती है।
अलग संस्कृति की बाधा : ‘विक्की डोनर’
सुजीत सरकार की फिल्म ‘विक्की डोनर’ (2012) दो अलग-अलग संस्कृतियों- पंजाबी व बंगाली से संबंधित विवाह की कहानी है। इसमें विक्रम उर्फ़ विक्की का ताल्लुक पंजाबी अरोड़ा परिवार से है और अशिमा रॉय बंगाली है। विक्की और तलाकशुदा बैंक कर्मचारी अशिमा एक-दूसरे से शादी करना चाहते हैं, लेकिन सांस्कृतिक भिन्नता के कारण दोनों को ही अपने-अपने परिवारों से विरोध का सामना करना पड़ता है। आखि़रकार सब कुछ ठीक हो जाता है, लेकिन जल्द ही यह राज़ खुल जाता है कि अशिमा बांझ है और विक्की का काम संतानहीन परिवारों की किसी खास तरह से मदद से जुड़ा है। यह फिल्म विवाह में अलग-अलग संस्कृतियों का बाधा बनना, बांझपन और बच्चे गोद लेना जैसे मुद्दे उठाती है।
विविधता से भरपूर फिल्मी शादियां
बहरहाल, जहां ‘हम दिल दे चुके सनम’ जैसी फ़िल्में गुजराती शादियों को उनके पारम्परिक रूप में दिखाती हैं वहीं ‘हम साथ साथ हैं’ जैसी फ़िल्में प्राचीन महाकाव्यों पर आधारित पारिवारिक शादियों की कहानियां पेश करती हैं। आजकल की फिल्में विवाह को प्रेम, कैरियर व पहचान के संघर्षों की पृष्ठभूमि में दिखाती हैं, जैसे ‘वीरे दी वेडिंग’। भव्य विवाह समारोहों को आधुनिक विषयों से जोड़ती हैं। ‘बैंड बाजा बारात’ शादी के आयोजन को नाटकीय अंदाज़ में दिखाती है। ऐसी फिल्मों में शादी को प्रेम व रिश्तों के तौर पर भी पेश किया जाता है। कई बार, फिल्मों में शादी के ज़रिये पारम्परिक और आधुनिक विचारों के टकराव को भी उजागर किया जाता है। -इ.रि.सें.

